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________________ 198...जैन मुनि के व्रतारोपण की त्रैकालिक उपयोगिता है। इस प्रकार काम के दस वेग होते हैं। इन वेगों से व्याप्त हुआ जीव यथार्थ वस्तु स्वरूप को नहीं देखता। जब लोकव्यवहार का ही ज्ञान नहीं रहे तब परमार्थ का ज्ञान कैसे हो?88 इसीलिए ब्रह्मचर्य अपनी अद्भुत महिमा और गरिमा के कारण सभी व्रतों में प्रथम स्थान रखता है। एतदर्थ कहा गया है 'तं बंभं भगवंतं' ब्रह्मचर्य स्वयं भगवान् है। प्रश्नव्याकरणसूत्र में ब्रह्मचर्य को बत्तीस उपमाएँ दी गयी हैं जो इस व्रत को सर्वोत्तम रूप में दिग्दर्शित करती हैं। जिस प्रकार श्रमणों में तीर्थङ्कर सर्वश्रेष्ठ माने गये हैं वैसे ही व्रतों में ब्रह्मचर्य श्रेष्ठ है। इसी प्रकार जैसे ग्रहों में चन्द्रमा, रत्नादि उत्पत्ति के स्थानों में समुद्र, मणियों में वैडूर्यमणि, आभूषणों में मुकुट, वस्त्रों में कपास वस्त्र, पुष्पों में कमल, चन्दनों में गोशीर्ष, नदियों में सीतोदा, समुद्रों में स्वयम्भू-रमण, वन्य जन्तुओं में सिंह, दानों में अभयदान, ध्यानों में शुक्लध्यान, ज्ञानों में केवलज्ञान, क्षेत्रों में महाविदेह, पर्वतों में सुमेरू, वनों में नन्दनवन श्रेष्ठ माना गया है तथैव समस्त व्रतों में ब्रह्मचर्यव्रत सर्वश्रेष्ठ है। इस प्रकार ब्रह्मचर्य अनेक निर्मल गुणों से व्याप्त है। प्रश्नव्याकरणसूत्र में इतना तक कहा गया है कि यह ऐसा आधारभूत व्रत है जिसके खण्डित होने पर सभी व्रत खण्डित हो जाते हैं इसकी आराधना करने पर सभी महाव्रतों की आराधना हो जाती है।90 यह महाव्रत चतुर्विध आश्रमों की दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण सिद्ध होता है। वैदिक परम्परा में चार प्रकार की आश्रम-व्यवस्था मान्य है। उसमें सर्वप्रथम आश्रम ब्रह्मचर्याश्रम है। ब्रह्मचर्य की सुदृढ़ नींव पर ही अन्य आश्रम टिके हुए हैं। वैदिक-साहित्य के अध्ययन से यह नितान्त स्पष्ट हो जाता है कि ब्रह्मचर्याश्रम में तो ब्रह्मचर्य की प्रधानता है ही, किन्तु वानप्रस्थाश्रम और संन्यासाश्रम में भी ब्रह्मचर्य को ही महत्त्व दिया गया है। केवल गृहस्थाश्रम में अब्रह्म की छूट है, किन्तु वह भी मर्यादित है। ब्रह्मचर्य का महत्त्व बौद्ध-परम्परा में भी स्वीकारा गया है। धम्मपद में कहा है91- अगरू और चन्दन की सुगन्ध अल्पकालिक है, किन्तु ब्रह्मचर्य (शील) की सुगन्ध इतनी व्यापक है कि मानवलोक में तो क्या देवलोक में भी व्याप्त हो जाती है यानि देवताओं के दिल को भी लुभा देती है। विसुद्धिमग्ग में कहा है92- शील की गन्ध के समान दूसरी गन्ध कहाँ होगी? दूसरी गन्ध तो जिधर हवा का रुख होता है उधर ही बहती है पर शील की गन्ध ऐसी गन्ध है जो
SR No.006241
Book TitleJain Muni Ke Vrataropan Ki Traikalik Upayogita Navyayug ke Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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