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________________ विवाह संस्कार विधि का त्रैकालिक स्वरूप ...293 देता है कि दोनों प्रसन्नचित्त रहें, गरीबी में भी अमीरी का आनन्द लें, सन्तोषी सदा सुखी की नीति अपनाएं। पाँचवां कदम प्रजापालन का है। घर के सभी सदस्य उपार्जन करने वाले की प्रजा होते हैं। सन्तान भी प्रजा है। सभी आश्रितों की समुचित देखभाल, सुरक्षा, उन्नति एवं सुख-शान्ति के लिए सदा सोचते रहें। छठवां कदम ऋतुचर्या का है। इसका यह संकेत है कि दाम्पत्य-जीवन में मर्यादाओं का सतर्कता से पालन किया जाए, असंयम की अभिवृद्धि न हो। सातवाँ कदम मित्रता को स्थिर रखने एवं बढ़ाने के लिए है। दोनों में परस्पर सहृदयता, सौजन्यता, आत्मीयता के भाव बढ़ते रहें, बनते रहे, इसका पूरा ख्याल रखा जाए। यदि प्रत्येक पति-पत्नी इन सात प्रकार के आदर्शों और सिद्धांतों को जीवन में हृदयंगम कर लें, तो दाम्पत्य जीवन की सफलता में कोई सन्देह ही नहीं रह सकता है। ___ आसन परिवर्तन का मुख्य कारण- विवाह-संस्कार में लग्न के समय चौथा फेरा या सातवाँ फेरा होने के बाद वर-वधू का आसन परिवर्तन करते हैं। अन्तिम फेरे के पूर्व तक वधू दाहिनी ओर बैठती है, किन्तु सप्तपदी होने तक की प्रतिज्ञाओं में आबद्ध हो जाने के उपरान्त वह आत्मीय बन जाती है, इसलिए उसे बायीं ओर बिठाया जाता है। बाएं से दाएं लिखने का क्रम है। बायां प्रथम और दाहिना द्वितीय माना जाता है। सात फेरे के बाद पत्नी को प्रमुखता प्राप्त हो जाती है। यह बात सीताराम, राधेश्याम, गौरीशंकर आदि नामों से भी स्पष्ट होती है कि पत्नी को प्रथम और पति को द्वितीय स्थान प्राप्त है। सारांशत: दाहिनी ओर से वधू का बायीं ओर आना उक्त अधिकार का हस्तान्तरण है। ध्रुव दर्शन का अंतरंग संदेश- ध्रुव स्थिर तारा है। अन्य सभी तारे गतिशील दिखाई देते हैं, पर ध्रुव अपने निश्चित स्थान पर ही स्थिर दिखता है। ध्रुव दर्शन का अर्थ है-जिस प्रकार ध्रुव-तारा स्थिर है, उसी प्रकार पति-पत्नी अपने-अपने परम पवित्र कर्त्तव्यों पर दृढ़ रहें। किसी भी परिस्थिति में अपनी प्रतिज्ञा से विचलित न बनें। इस प्रकार ध्रुव चित्त को स्थिर रहने और अपने कर्तव्य पर सुदृढ़ रहने की प्रेरणा देता है। गोत्रोच्चार की परम्परा क्यों? विवाह मण्डप में या किन्हीं मत में कन्यादान के पूर्व वर और वधू के गोत्रज नामों एवं कुलों की उच्च स्वर से सूचना दी जाती है। इस प्रथा का महत्त्व इसलिए है कि उपस्थित लोगों को यह
SR No.006239
Book TitleJain Gruhastha Ke 16 Sanskaro Ka Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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