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________________ (1) विषय भोग की इच्छा या कामना उत्पन्न होते ही चित्त भोग्य वस्तु को पाने के या भोगने के लिए अशांत हो जाता है। चित्त की यह अशांति कामना पूरी नहीं होने तक बनी रहती है। इसे ही आधुनिक मनोविज्ञान में तनाव कहा गया है। तनाव की उपस्थिति दुःख ही (2) भोगेच्छा की पूर्ति पर-पदार्थों की प्राप्ति पर निर्भर है और यह पर-पदार्थों की प्राप्ति भोगाकांक्षी व्यक्ति को पराधीन बना देती है और जहां पराधीनता है, वहां दुःख है। विपश्यना के माध्यम से यह ‘पर' की अपेक्षा या पराधीनता समाप्त होती है। अतः विपश्यना परम सुख है। (3) भागेच्छा की पूर्ति जड़ पदार्थों से होती है, जो बाह्य जगत् में स्थित है। इसमें चेतना बहिर्मुखी हो जाती है। विपश्यना इस बहिर्मुखी चेतना को स्वाभिमुख बनाती है, अतः विपश्यना परम सुख है। (4) विषयभोग की इच्छा ‘पद-पदार्थों के भोग पर आधारित है और यह भोगजन्य सुख क्षणिक है, अनित्य है और विनाशी है अतः उसके विनाश का काल आने पर वह भोग सुख दुःख में बदल जाता है। भगवान बुद्ध ने भी कहा था कि जो क्षणिक है, वे दुःख रूप हैं और जो दुःख रूप हैं, वे अनात्म हैं अपने नहीं है, विपश्यना इन क्षणिक और नश्वर बाह्य-पदार्थों पर ममत्व के मिथ्या-आरोपण को समाप्त करती है, इसीलिए वह परम सुख जैन ग्रंथ उत्तराध्ययन सूत्र में कहा गया है कि पर-पदार्थों के भोग में सुख मानना एक मिथ्या धारणा है और जो दुःख रूप है। क्योंकि भोग के लिए प्रथम तो उन परपदार्थों को उपलब्ध करना कठिन होता है अतः उनकी चाह और उनको पाने के प्रयास दोनों ही दुःख रूप होते हैं। यदि किसी भी प्रकार से वे उपलब्ध भी कर लिए जाए, तो उनके संरक्षण की चाह बनी रहती है और वह भी दुःख रूप होती है। दूसरे संरक्षण की चाह के साथ उनके वियोग की संभावना भी चेतना में बनी रहती है, अतः चेतना निराकुल नहीं रह पाती। इसके साथ ही मनोवैज्ञानिक दृष्टि से यह भी सत्य है कि हम भोगाकांक्षा की प्रिय वस्तु के संरक्षण की भावना में इतने डूब जाते हैं कि उसका संरक्षण ही करते रहते हैं उसके भोग को भूल जाते हैं। संक्षेप में कहें तो भोग्य विषयों की प्राप्ति दुःख रूप होती है, प्राप्त हो जाने पर, उनका वियोग भी दुःख रूप होता है और संयोग की अवस्था में उसके वियोग की चिंता भी दुःख रूप होती है। अतः दुःख-विमुक्ति के लिए उनके प्रति तटस्थता 101)
SR No.006189
Book TitleBauddh Dharm Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages112
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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