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________________ में अवस्थित रहे, तो उसके दो परिणाम मिल सकते हैं। प्रथम तो यह कि चित्त के विकल्प समाप्त हो जाते हैं और यदि वे होते भी हैं तो आत्मा या चित्त मात्र उनका साक्षी होता, कर्ता नहीं होता। इस प्रकार विकल्प समाप्त होकर निर्विकल्प बोध की स्थिति बनती जाती हैं। इसमें चित्तवृत्ति की सजगता के परिणाम स्वरूप निर्विकल्प स्थिति न होकर के निर्विकल्प बोध होता है। वस्तुतः समस्त दुःखों का मूल कारण चित्त के विकल्प ही हैं और ध्यान विकल्पमुक्ति का प्रयास है। विकल्प-मुक्ति ज्ञाता-दृष्टा भाव की स्थिति में ही संभव है। विपश्यना मूलतः साक्षी भाव या ज्ञाता दृष्टा भाव में रहने की साधना है। जैसे-जैसे आत्म सजगता (Self awareness) बढ़ती जाती है व्यक्ति विकल्पों से मुक्त हो जाता है और पूर्ण निर्विकल्प-बोध की अवस्था की ओर बढ़ता जाता है। पूर्ण निर्विकल्पता या अप्रमत्त दशा में विकल्प समाप्त हो जाते हैं, स्व-पर का भेद-विज्ञान स्पष्ट हो जाता है। ‘पर' या अन्य पर स्व अर्थात् अपनेपन का आरोपण समाप्त हो जाता है विकल्प समाप्त हो जाते हैं। ममत्व समाप्त होकर समत्व प्रकट हो जाता है। वीतराग या वीततृष्ण दशा प्रकट होती है। फलतः दुःख समाप्त हो जाते हैं। ममत्व समाप्त होकर समत्व प्रकट हो जाता है। वीतराग या वीततृष्ण दशा प्रकट होती है। फलतः दुःख समाप्त हो जाते हैं, कर्म अकर्म बन जाता है। यही परमसुख की अवस्था है। यह परमसुख मूलतः कोई विधि रूप स्थिति या किसी उपलब्धता की स्थिति नहीं है, अपितु विकल्पों के समाप्त होने से तद्जन्य दुःख की विमुक्ति है। जैसे किसी को 105 डिग्री बुखार हो और वह बुखार उतर जाए, शरीर का तापमान सामान्य हो जाए, तो वह सुख की अनुभूति करता है। उसी प्रकार विपश्यना से चित्त विकल्प मुक्त हो जाता है। चित्त में राग द्वेष और मोह की गांठ समाप्त हो जाती है। चित्त परम शांति का अनुभव करता है, इसी को पं. कन्हैयालालजी ने परमसुख की अवस्था कहा है। वस्तुतः वह पूर्णतः दुःख विमुक्ति की अवस्था है। अतः पं. कन्हैयालालजी का यह कथन ठीक ही है कि विपश्यना परम सुख की अवस्था है। विपश्यना परम सुख कैसे है? इसे स्पष्ट करते हुए पं. कन्हैयालालजी लोढ़ा लिखते हैं कि दुःखों का मूल विषय भोगों के माध्यम से सुख के मिलने की इच्छा करना या मृगतृष्णा है। संसार से, ‘पर' से, विनाशी तत्त्वों से सुख लेने की यह कामना ही दुःख का मूल है। क्योंकि भोग की तृष्णा से समस्त दुःखों एवं दोषों की उत्पत्ति होती है। उसे इस प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है (100 100
SR No.006189
Book TitleBauddh Dharm Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages112
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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