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________________ या माध्यस्थ भाव अपेक्षित है और विपश्यना हमें इसी माध्यस्थ - भाव या वीतरागता शिक्षा देती है। अतः विपश्यना की साधना वस्तुतः परमसुख की साधना है। इस प्रकार यह तो निश्चित है कि यदि हम निर्वैषयिक सुख को प्राप्त करना चाहते हैं तो हमें विपश्यना, प्रेक्षा या साक्षी भाव की साधना करना ही होगी। विपश्यना, प्रेक्षा या साक्षी भाव चाहे शब्दों में भिन्न-भिन्न हो किंतु उनका मूल लक्ष्य निर्विकल्प - बोध ही है और वही समस्त जागति दुःखों के निराकरण का मूलमंत्र है और इसी के परमसुख या निर्वाण की प्राप्ति सम्भव है। - - - निर्वाण परमसुख है किंतु यह निर्वाण है क्या ? तृष्णा रूपि आग को बुझ जाना है निर्वाण ? विपश्यना इस तृष्णा की आग को समाप्त करने की कला है। तृष्णा 'पर' पदार्थों की चाह है, यह 'पर' को पाने की चाह ही काम तृष्णा है। अनात्म (जो अपना नहीं है ) को अपना मानने की मिथ्याधारणा, उस पर स्वत्व आरोपण करने की मिथ्या अपेक्षा और उसके संयोग की चाह राग- जन्य तृष्णा है, इसे 'भवतृष्णा' भी कहते हैं । यह होने की इच्छा है। प्रतिकूल के निराकरण की चाह, उसके वियोग की चाह यह द्वेष रूप है । साधक को परमसुख की प्राप्ति के लिए इन दोनों से बचना होगा। बौद्ध परम्परा में तृष्णा के ये तीनों प्रकार अर्थात् 1 कामतृष्णा, 2 भवतृष्णा और 3 विभवतृष्णा दुःख रूप है। इन तीनों तृष्णाओं से मुक्त होकर आत्म-सजगता में जीना ही विपश्यना है और दुःख विमुक्ति और परम सुख की प्राप्ति का मार्ग है। क्योंकि तृष्णा स्वतः दुःख रूप है, क्योंकि वह चाह या तनाव रूप है, साथ ही वह दुःख का कारण भी है अतः परमसुख की प्राप्ति के लिए तृष्णा का उच्छेद आवश्यक है इसी बात को पं. कन्हैयालालजी ने प्रस्तुत कृति के चतुर्थ विभाग 'दुःख समुदय' में विस्तार से समझाया है। वे लिखते हैं कि 'वैषयिक सुख की कामना शेष नहीं रहने पर कुछ भी पाना और जानना शेष नहीं रहता और इस प्रकार कामना, ममता, अहंमता नहीं रहने पर निर्विकल्प बोध हो जाता है।' किसी कवि ने भी कहा है। चाह नहीं, चिंता नहीं, मनवा भया बैपरवाह ! जिसको कुछ नहीं चाहिए, वह शहंशाहों की शहंशाह ॥ विपश्यना की इस साधना का मूल लक्ष्य चित्त- विशुद्धि है। यह चेतना की विषय - विकल्पों से रहितता की स्थिति है। इससे चित्त शांत विकल्प रहित सुख की अनुभूति में लीन रहता है। बौद्ध परम्परा में विपश्यना की साधना के जिन अंगों का विवेचन है, उनमें 102
SR No.006189
Book TitleBauddh Dharm Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages112
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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