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________________ अष्ठम अध्याय/195 व्याप्त है, तद्वत् वर्ण मात्रादि से समग्र शास्त्र व्याप्त है । इसलिये ऐसे व्यापक स्तम्भ का त्याग नहीं हो सकता । अतएव काव्यमीमांसाकार राजशेखर ने 'रोमाणि छन्दांसि' इस पंक्ति से सर्वत्र व्याप्त छन्द को स्थान दिया है । जिस प्रकार 'छन्दः पादौ तु वेदस्य' यह उक्ति वैदिक ज्ञान को छन्द के माध्यम से गतिशीलता एवं प्रवाह प्रदान करती है, उसी प्रकार 'रोमाणि छन्दांसि' यह राजशेखरोक्ति भी (काव्य का रोम छन्द है) काव्य में गतिशीलता एवं प्रवाह प्रदान करने में समर्थ है । मानव मन में कोई भाव जब उत्पन्न होता है, उसकी अभिव्यक्ति के साक्षात् परिचायक रोम ही होते हैं । व्यक्ति के रोमांच को देखकर उसके अन्त:करण के भावों का अवधारण हो जाता है । एवमेव काव्यीय छन्दों को देखकर उसमें निहित भावों का ज्ञान व्यक्ति सरलता से कर लेता है । नाट्य शास्त्र-प्रणेता आचार्य भरत मुनि का उद्घोष है कि 'छन्दविहीन शब्द कोई शब्द नहीं है ।" काव्य में अभिव्यक्त किये जाने वाले पदार्थों एवं भावों के प्रकाशन में छन्द का प्रमुख स्थान है । सफल कवि वही है जो अभीष्ट भाव के लिये तद्नुरूप छन्दों की योजना कर सके । अनुरूप छन्द में वर्णित विषय मर्मस्पर्शी, हृदयावर्जक एवं रोचक हो जाता है । अतएव कवि मनो वैज्ञानिक एवं संगीतज्ञ भी होता है । इसलिये पाश्चात्य समीक्षक कालरिज भी यह मानता है कि कविता छन्दोबद्ध होनी चाहिये, उसमें संगीत होना चाहिये। भाव के नादमय स्वरूप को जानने के लिये संगीत की आवश्यकता पड़ती है । प्राप्त मनोगतभाव को कवि छन्द और भाषा के माध्यम से पाठक में मूर्त कर देता है । भावों के सच्चे परिवाहक छन्द ही हैं। लय छन्दों का प्राण है । नाद में सुसंगता और सुषमामय कम्पन को लय कहते हैं। नाद का यह कम्पन ही जीवन का चिह्न है । उसी प्रकार कविता के जीवन का चिह्न छन्द है । छन्द हमारे जीवन में विशेष प्रेरणा भरते रहते हैं । छन्द से सूक्ति में सजीवता आती है। वह सूक्ति मानव में जीवन का संचार करती है । छन्द में वर्ण और मात्रा सम्बन्धी विशेष नियमों का अनुसरण होता है । क्रमविशेष में प्रयुक्त वर्ण और मात्रा विशेष प्रकार का प्रभाव उत्पन्न करते हैं । मात्रा के भेद से उच्चारण के भेद होते हैं । उच्चारण भेद से प्रभाव में भी विलक्षणता आती है । प्रभाव वैलक्षण्य से फलभेद भी होता है । भावानुकूल छन्दों का भी परिवर्तन होता रहता है । भावानुकूल छन्दः परिवर्तन से प्रति छन्द के क्षेत्र में एक नवीनता परिलक्षित होती है । उस नवीनता से ही कविता में रमणीयता आती है। ___छन्दःशब्द की व्युत्पत्ति महर्षि यास्क ने निरुक्त में छद् धातु से बतलायी है जो आच्छादनार्थक है । 'छन्दांसि छादनात्' वेदार्थ का आच्छादन करने के कारण इन्हें छन्द कहते हैं । निरुक्त की टीका में आचार्य दुर्ग का भी कथन है कि मृत्यु से त्रस्त देवों ने भी छन्दों के द्वारा स्वात्म रक्षा की, इसीलिये इन्हें छन्द कहा जाता है । कालान्तर में वेद के लिये 'छन्द' शब्द का औपचारिक प्रयोग होने लगा। 'छन्दवत् सूत्राणिभवन्ति''श्री त्रियंश्छन्दोऽधीते','वहुलं छन्दसि'
SR No.006171
Book TitleJayoday Mahakavya Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailash Pandey
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra
Publication Year1996
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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