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________________ 154/जयोदय महाकाव्य का समीक्षात्मक अध्ययन अहीन लम्बे भुजम दण्डे विनिर्जिताखण्डलशुण्डिशुण्डे । परायणायां भुवि भुपतेः स शुचेव शुक्लत्वमवाप शेषः ॥185 यहाँ भी वाच्योत्प्रेक्षा से व्यतिरेक ध्वनित हो रही है। "श्रीपादपद्मद्वितयं जिनानां तस्थौ स्वकीये हृदि सन्दधाना । देवेषु यच्छ्रद्वधतां नभस्या भवन्ति सद्यः फलिताः समस्याः ॥''86 सुलोचना का मनोरथ सफल कैसे होगा ? इस हेतु सुलोचना अपने चित्त में भगवान् जिन के चरणकमल द्वय को हृदय से धारण की थी क्योंकि देवों पर श्रद्धा रखने वाले व्यक्ति की आकाशीय समस्याएँ भी (असम्भाव्य वांछाएँ भी) सफल हो जाती है । यहाँ अर्थान्तरन्यास अलंकार है जिससे जिनकी उदात्तता व्यंजित होने के कारण उदात्त अलङ्कार ध्वनित हो रहा है । मुनिगत सुलोचना की रति भी व्यङ्गय है । गुणीभूत व्यङ्गय : जयोदय महाकाव्य में गुणीभूत व्यङ्गय के एक उदाहरण पर दृष्टिपात करें"निपीय मातङ्गघटानगोधं स्पृशन्त्यरीणां तदुरोऽप्यमोघम् । वामा ध्वनामात्ममतं निवेद्य यस्यासिपुत्री समुदाप्यतेऽद्य ॥ 187 यहाँ जयकुमार की क्षुरिका वाम मार्ग नाम से कही गयी है । वह शत्रुओं के हाथियों के मण्डल का रक्तपान कर तथा शत्रुओं के वक्षस्थल का स्पर्श करती हुई उत्कृष्ट बतलायी गयी है । इससे क्षुरिका की तीक्ष्णता व्यंजित हो रही है । यह व्यङ्गय वाक्यार्थ की अपेक्षा अधिक चमत्काराधायक न होकर उसी का उपकारक बन जाता है । राजा की तलवार असिपुत्री बतायी गयी है । अर्थात् पुत्री होकर भी वाम मार्ग को अपनाने वाली है । 'मातङ्ग' शब्द श्लिष्ट होने के कारण चाण्डाल अर्थ को भी व्यक्त करता है । इस प्रकार वह असि-पुत्री चाण्डाल के घड़े का रक्त पीकर प्रसन्नतापूर्वक शत्रुओं के हृदय का अप्रतिहत गति से आलिङगन करती है। इस वाच्यार्थ में चमत्कार अधिक है । असि (खङ्ग) पर पुत्री का आरोप एवं 'मातङ्ग' शब्द से चाण्डाल तथा घट से घड़ा रूप अर्थ बोधकर वाममार्गिणी पुत्री के व्यवहार का खग पर आरोप किया गया है, जिससे ध्वनि प्रधान न होकर अधिक चमत्काराधायक होने से समासोक्ति अलंकार अधिक चमत्काराधायक बन जाता है । अतएव यह गुणीभूत व्यङ्गय मध्यम काव्य है। अर्थ शक्त्युत्थ वस्तु से वस्तुध्वनि : प्रकृत महाकाव्य इस ध्वनि से अछूता नहीं है । इस ध्वनि का रम्य उदाहरण महाकवि के वर्णन में द्रष्टव्य है
SR No.006171
Book TitleJayoday Mahakavya Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailash Pandey
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra
Publication Year1996
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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