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________________ षष्ठ अध्याय / 153 जड पदार्थ प्रासाद पक्ति हँसी कहाँ से कर सकती है । परन्तु उसमें चेतन का आरोप करके कवि ने वर्णन किया है । इस प्रकार यहाँ उत्प्रेक्षा अलङ्कार है । हावलि पर चेतन के कार्यों का समारोप होने के कारण उत्प्रेक्षा से समासोक्ति ध्वनित हो रही है । एक और उदाहरण यथा "ककु भामगुरूत्थलेपनानि शिखिनामम्बुदभांसि धूपजानि ।। खतमालतमांसि खे स्म भान्ति भविनां त्रुटऽदघद्धवीनियान्ति ॥182 हवन किये गये धूप से उत्पन्न हुए धुएँ आकाश में फैलते समय दिशाओं में अगर के लेप के समान प्रतीत हुए । एवं मयूरों के लिये मेघ सदृश प्रतीत हुए और भव्य जीवों के लिये भग्न अपने पापों के आकार में प्रतीत हुए । इस प्रकार यहाँ उल्लेखालंकार वाच्य है जिससे उपमा और अप्रस्तुत प्रशंसा ध्वनित हो रही है । इसी प्रकार आगे के श्लोकों में भी यह ध्वनि द्रष्टव्य है... "ननु तत्करपल्लवे सुमत्वं पथि ते व्योमनि तारकोक्तिमत्वम् । जनयन्ति तदुज्झिताः स्म लाजा निपतन्तोऽग्निमुखे तु जम्भराजाः ॥ 83 इस पद्य में यह वर्णन किया गया है कि सुलोचना और जयकुमार के परिणय संस्कारावसर घर वर और वधू दोनों ने अपने कर पल्लवों से हवन के उद्देश्य से जो लाजा को छोड़ावह हाथ में ग्रहण करते समय पुष्प सदृश प्रतीत हुई और ऊपर से छोड़ते समय आकाश में ताराओं (नक्षत्र) के सदृश प्रतीत हुई एवं अग्नि के मुख में पड़ते समय अग्नि के दन्त पंक्ति के समान अनुभव में आयी । इस प्रकार उस लाजा के मान विकल्पोत्थान किये गये हैं जो उल्लेखालङ्कार को स्पष्ट करता है । इस उल्लेख से यहाँ उत्प्रेक्षा व्यंजित हो रही है। इसी प्रकार इसके पूर्व प्रथम सर्ग में ही व्यतिरेकालङ्कार ध्वनि द्रष्टव्य है - "भवाद्भवान भेदमवाप चङ्ग भवः स गौरीं निजमर्धमङ्गम् ।। चकार चादो जगदेव तेन गौरीकृतं किन्तु यशोमयेन ॥'84 यहाँ जयकुमार का वर्णन करते हुए कहा गया है कि यह महादेव से विलक्षण है क्योंकि महादेव आधे अङ्ग में पार्वती को रख सके हैं (अर्धनारीश्वर होने से आधे अङ्ग में पार्वती की रचना कर सके हैं) परन्तु इस राजा ने अपने अखण्ड यश से सारे जगत् को गौरी बना लिया है । अर्थात शंकर ने केवल एक अङ्ग में गौरी का निर्माण किया और यह सारे जगत को गौरी बना दिया । इसलिये व्यतिरेकालङ्कार है । जिससे उत्प्रेक्षा, अपहृति एवं भ्रान्तिमान् ध्वनित हो रहा है। ___ जयकुमार के भुजदण्ड सर्पराज शेष के समान लम्बे थे इन्द्र के ऐरावत हाथी के शुण्डदण्ड को भी पराजित कर चुके थे। यह पृथ्वी उनके भुजदण्ड के आश्रित सुदृढ़ बन गयी । इसी शोक से मानो शेषनाग श्वेत हो गये। इस रम्य भाव का दर्शन करें
SR No.006171
Book TitleJayoday Mahakavya Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailash Pandey
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra
Publication Year1996
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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