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________________ षष्ठ अध्याय / 155 "सन्ति गेहिषु च सज्जना अहा भोग संसृति शरीर निः स्पृहाः । तत्त्ववर्त्मनिरता यतः सुचित्प्रस्तरेषु मणयोऽपि हि क्वचित् ॥ 1188 यहाँ वर्णन किया गया है कि गृहस्थों में भी कतिपय सज्जन ऐसे होते हैं जो संसार शरीर और भोगों से स्पृहा शून्य होते हैं क्योंकि वे तत्त्व मार्ग में रत रहते हैं । ठीक ही है कहीं-कहीं सुन्दर पत्थरों में बहुमूल्यवान् मणि भी मिल जाते हैं । इस वाक्यार्थ रूप वस्तु से यह ध्वनि निकलती है कि गृहस्थ मार्ग में भी कतिपय व्यक्ति आसक्तिहीन होते हैं । व्यभिचारी भाव की व्यङ्गयता : प्रकृत ग्रन्थ से इस ध्वनि का एक उदाहरण देखें - यथा 'परिणता विपदेकतमा यदि पदमभृन्मम भो इतरा पदि । पतितुजोऽनुचितं तु पराभवं श्रणति सोमसुतस्य जयो भवन् ॥' 189 इस पद्य में चिन्ताभाव व्यंजित है । अर्ककीर्ति और जयकुमार के युद्ध में जयकुमार को विजय प्राप्त हो जाने पर काशी नरेश महाराज अकम्पन का कथन है कि हे भगवन् । सुलोचना सम्बन्धी एक विपत्ति तो दूर हुई परन्तु अब दूसरी विपत्ति के स्थान को हम प्राप्त हो गये। क्योंकि अर्ककीर्ति से जय की ठन गयी है । इस उक्ति से राजा की चिन्ता व्यंजित होने से यहाँ भाव ध्वनि है । यह चिन्ता ही उत्तरोत्तर शान्ति की व्यवस्थापिका बनती है । महाराज चक्रवर्ती भरत के पास काशी नरेश अकम्पन द्वारा दूत का भेजना एवं भरत द्वारा अकम्पन के कृत्यों का समर्थन शान्ति की पुष्टि करता है । विग्रह निवृत्ति हेतु ही अर्ककीर्ति की अक्षमाला अर्पण की गयी है । उत्तरोत्तर सर्गों का इतिवृत्त शम स्थायिशान्त की ओर ही उन्मुख दिखायी दे रहा है। "कचेषु तेलं श्रवसोः फुलेलं ताम्बूलमास्ये हृदि पुष्पितेऽलम् । नासाधिवासार्थमसौ समासात्समस्ति लोकस्य किलाभिलाषा ॥ 90 यहाँ केशों में तेल लगाना कानों में इत्र आदि का पोतना, मुख में ताम्बूल रखना, वक्षस्थल पर पुष्पमाला धारण करना, नासिका द्वारा सुगन्धित वस्तु का सेवन करना आदि ये सब कृत्य लोक की ही इच्छाएँ हैं । परन्तु मननशील मुनियों की पद्धति इससे भिन्न है जैसा कि इसी सर्ग के श्लोक संख्या सोलह में दिखाया गया है। "शिरोगुरोरं धि धुरोरजोभिरुरः पुरः पांशु परं सुशोभि । फुत्कारपुत्का खलु कर्णपालीत्यदन्तमृष्टस्य मुनेः प्रणाली || 91 अर्थात् मनुष्य को चाहिए कि अपने मस्तक को गुरु के चरण रज से सम्पृक्त करें
SR No.006171
Book TitleJayoday Mahakavya Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailash Pandey
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra
Publication Year1996
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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