SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 31
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बांधना बतलाया है, पर मूर्ति पूजा से तीर्थकर गोत्रबंध नहीं कहा है। उ. - कहा तो है पर आपको समझाने वाला कोई नहीं मिला। ज्ञाता सूत्र के 20 बोलों में पहिला बोल अरिहन्तों की भक्ति और दूसरा बोल सिद्धों की भक्ति करने से तीर्थंकर गोत्रोपार्जन करना स्पष्ट लिखा है, और यही भक्ति मन्दिरों में मूर्तियों द्वारा की जाती है। महाराजा श्रेणिक अरिहन्तों की भक्ति के निमित्त हमेशा 108 सोने के जौ (यव) बनाके मूर्ति के सामने स्वस्तिक किया करता था, और भक्ति में तल्लीन रहने के कारण ही उसने तीर्थङ्कर गोत्र बांधा था। कारण दूसरे तप, संयम, व्रत तो उदय ही नहीं हुए थे, यदि कोई कहे कि श्रेणिक ने जीव दया पाली उससे तीर्थङ्कर गोत्र बंधा, पर यह बात गलत है, कारण जीव दया से साता वेदनीयकर्म का बन्ध होना भगवती सूत्र श. 8 उ. 5 में बतलाया है, इसलिए श्रेणिक ने अरिहन्तों एवं सिद्धों की भक्ति करके ही तीर्थङ्कर गोत्रोपार्जन किया था। . प्र. - मूर्ति पूजा में हिंसा होती है, उसे आप धर्म कर्म मानते हो? ____ उ. - सिद्धांतों में मूर्तिपूजा की जो विधि बताई है, उसी विधि से भक्त जन पूजा करते हैं। इसमें जल चन्दनादि द्रव्यों को देख के ही आप हिंसा 2 की रट लगाते हो तो यह आपकी भूल है। यह तो पांचवेंगुणस्थान की क्रिया है, पर छठेसे तेरहवेंगुणस्थान तक भी ऐसी कोई क्रिया नहीं है कि जिसमें जीव हिंसा न हो। खुद केवली हलन चलन की क्रिया करते हैं, उसमें भी तो जीव-हिंसा अवश्य होती है, इसी कारण से उनके दो समय का वेदनीयकर्म का बंधन होता है। यदिसाधु, श्रावक की क्रिया में हिंसा होती ही नहीं तो वे प्रति समय सातकर्म क्यों बाँधते हैं? इसका तो जरा विचार करो। जैसे पूजा की विधिमें आप हिंसा मानते हो तो आपके गुरु वंदन में भी हिंसा क्यों नहीं मानते हो? उसमें भी तो असंख्य वायुकाया के जीव मरते हैं। साधु व्याख्यान देते समय हाथ ऊंचानीचा करे, उसमें भी अनगिनित वायकाया के जीवमरते हैं। इसी तरह आंख का एक वाल चलता है तो उसमें भी अनक वायुकाया के जीव मरते हैं। यदि आप यह कहो कि वंदना करने का व्याख्यान देने का परिणाम शुभ होता है, इससे उस हिंसा का फल नहीं होता, तोहमारी मूर्ति-पूजा सेफिर सामायिक करना श्रावक का परम कर्तव्य है, वैसे ही भगवान की पूजा भी श्रावक (29
SR No.006167
Book TitleJain Dharm Me Prabhu Darshan Pujan Mandirki Manyata Thi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarmuni
PublisherJain S M Sangh Malwad
Publication Year
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy