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________________ कौन-सा अशुभ परिणाम का फल होता है। जो सारा पाप इसी के सिर मढ़ा जाय? महाशय! जरा समदर्शी बनो ताकि हमारे आपके परस्पर नाहक का कोई मत-भेद न रहे। प्र. - पूजा यत्नों से नहीं की जाती है। उ. - इस बात को हम स्वीकार करते हैं कि गुरु वन्दनादि प्रत्येक क्रिया यत्नों से व सोपयोग करनी चाहिये। पर अयत्ला देख उसे एकदम छोड़ ही नहीं देना चाहिये। जैसे- श्रावक को सामायिक 32 दोष वर्ज के करना कहा है। यदि किसी ने 30 दोष टाले,किसी ने 20 दोष टाले, इसका अर्थ यह कदापि नहीं होता कि एक दोष न टालने से सामायिक को ही छोड़ देना चाहिए। इसी प्रकार कई देश, काल ऐसे ही हैं कि अनिच्छता जानबूझ के दोष का सेवन करना पड़ता है। जैसे साधुओं को पेशाब, टट्टी, ग्राम नगर में नहीं परठना, ऐसा शास्त्रों में आदेश है, पर वे देशकाल को देख, जानबूझ कर इस दोष का सेवन करते हैं। ऐसे 2 एक नहीं पर अनेकों उदाहरण विद्यमान हैं। प्र. - बस अब मैं आपको विशेष कष्ट देना नहीं चाहता हूँ। कारण मैं आपके दो प्रश्नों के उत्तर में ही सब रहस्य समझ गया, पर यदि कोई पूछ ले तो उसको जवाब देने के लिये मैंने आपसे इतने प्रश्न किये हैं । आपने निष्पक्ष होकर न्याय पूर्वक जो उत्तर दिया उससे मेरी अन्तरात्मा को अत्यधिक शान्ति मिली है। यह बात सत्य है कि वीतराग दशा की मूर्ति की उपासना करने से आत्मा का क्रमशः विकास होता है। मैं भी आज से मूर्ति का उपासक हूँ और मूर्ति पूजा में मेरी दृढ श्रद्धा है आपको जो कष्ट दिया, तदर्थ क्षमा चाहता हूँ। . उपसंहार ___ उत्तर - मूर्तिपूजा में दृढ श्रद्धालु होना, और उसका उपासक बनना यह आपकी कर्त्तव्यशीलता, भवभय-भीरुता और सत्य को स्वीकार करने की सद्बुद्धि है। एवं यह आपका जनोचित कार्य प्रशंसनीय भी है। फिर भी आपको जरा यह बतला देना चाहता हूँ कि, जैन मन्दिर मानने में जैनियों को कितना लाभ है? इसे भी एकाग्र से समझें। का पहला कर्तव्य है। जिसमें ऐसी श्रद्धा विश्वास नहीं वहां मिथ्यात्व आ जाता है। (30
SR No.006167
Book TitleJain Dharm Me Prabhu Darshan Pujan Mandirki Manyata Thi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarmuni
PublisherJain S M Sangh Malwad
Publication Year
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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