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________________ जैन संस्कृत महाकाव्य हृदय में पुरसुन्दरियों की त्वरा सहसा प्रतिबिम्बित हो जाती है । नारी के नीवी - स्खलन अथवा अधोवस्त्र के गिरने का वर्णन, इस सन्दर्भ में, प्रायः सभी कवियों ने किया है । कालिदास ने अधीरता को नीवी-स्खलन का कारण बता कर मर्यादा की रक्षा की है ।" माघ ने इसका कोई कारण नहीं दिया जिससे उसका विलासी रूप अधिक मुखर हो गया है । २ नग्न नारी को जनसमूह में प्रदर्शित करना जैन यति की पवित्रतावादी वृत्ति के प्रतिकूल था । अतः उसने इस रूढि को काव्य में स्थान नहीं दिया । इसके विपरीत काव्य में उत्तरीय के गिरने का वर्णन किया गया है । शुद्ध नैतिकतावादी दृष्टि से तो शायद यह भी औचित्यपूर्ण नहीं है किन्तु नीवी स्खलन की तुलना में यह अवश्य क्षम्य है और कवि ने इसका जो कारण दिया है: उससे तो पुरसुन्दरी पर कामुकता का दोष आरोपित ही नहीं किया जा सकता । कीर्तिराज की नायिका हाथ के आर्द्र प्रसाधन के मिटने के भय से, गिरते उत्तरीय को नहीं पकड़ती और उसी अवस्था में वह गवाक्ष की ओर दौड़ जाती है । " प्रकृति-चित्रण ८४ नेमिनाथ-महाकाव्य की भावसमृद्धि तथा काव्यमत्ता का प्रमुख कारण इसका मनोरम प्रकृति-चित्रण है, जिसके अन्तर्गत कवि की काव्य-प्रतिभा का भव्य उन्मेष हुआ है । कीर्त्तिराज का प्रकृति-वर्णन प्राकृतिक तथ्यों का कोरा आकलन नहीं अपितु सरसता से ओत-प्रोत तथा कविकल्पना से उद्भासित काव्यांश है । महाकाव्य के अन्य पक्षों की भाँति कवि ने प्रकृति-चित्रण में भी अपनी सुरुचि का परिचय दिया है । कालिदासोत्तर महाकाव्य में प्रकृति के उद्दीपन पक्ष की पार्श्वभूमि में, उक्तिवैचित्र्य के द्वारा नायक-नायिकाओं के विलासितापूर्ण चित्र अंकित करने की परिपाटी है। प्रकृति के आलम्बन-पक्ष के प्रति उत्तरवर्ती कवियों का अनुराग नहीं है । कीर्तिराज ने भी प्रकृति-चित्रण में वक्रोक्ति का आश्रय लिया है और पूर्ववर्ती कवियों की तरह ऋतुवर्णन आदि प्रसंगों में यमक का मुक्तता से प्रयोग किया है, किन्तु प्रकृति के स्वाभा विक रूप का अंकन करने में उसका मन अधिक रमा है और इसमें ही उसकी काव्यकला का उत्कृष्ट रूप व्यक्त हुआ है । उसके उन वर्णनों में भी, जिन्हें आलंकारिक कहा जा सकता है, प्रकृति के स्वाभाविक रूप का चित्रण किया गया है । ११. जालान्तरप्रेषितदृष्टिरन्या प्रस्थानभिन्नां न बबन्ध नीवीम् । रघुवंश, ७.६. १२. अभिवीक्ष्य सामिकृतमण्डनं यती: कररुद्धनीवीगलदंशुकाः स्त्रियः । शिशुपालवध, १३.३१ १३. काचित्करार्द्रा प्रतिकर्मभंगमयेन हित्वा पतदुत्तरीयम् । मंजीरवाचालपदारविन्दा द्रुतं गवाक्षाभिमुखं चचाल || नेमिनाथमहाकाव्य १०.१३ "
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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