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________________ ८३ नेमिनाथमहाकाव्य : कीतिराज उपाध्याय नेमिनाथ महाकाव्य में प्रयुक्त कतिपय काव्यरूढियां संस्कृत महाकाव्यों की रचना एक निश्चित ढर्रे पर हुई है जिससे उनमें अनेक शिल्पगत समानताएँ दृष्टिगम्य होती हैं । शास्त्रीय मानदण्डों के निर्वाह के अतिरिक्त उनमें कतिपय काव्यरूढियों का तत्परता से पालन किया गया है। यहां नेमिनाथ महाकाव्य में प्रयुक्त दो रूढ़ियों की ओर ध्यान आकृष्ट करना आवश्यक है, क्योंकि काव्य में इनका विशिष्ट स्थान है तथा ये इन रूढ़ियों के तुलनात्मक अध्ययन के लिये रोचक सामग्री प्रस्तुत करती हैं। प्रथम रूटि का संबंध प्रभात-वर्णन से है। प्रभातवर्णन की परम्परा कालिदास तथा उनके परवर्ती अनेक महाकाव्यों में उपलब्ध है। कालिदास का प्रभात-वर्णन (रघुवंश, ५.६६-७५), आकार में छोटा होता हुआ भी, मार्मिकता में बेजोड़ है । माघ का प्रभात-वर्णन बहुत विस्तृत है, यद्यपि प्रातःकाल का इस कोटि का अलंकृत वर्णन समूचे साहित्य में अन्यत्र दुर्लभ है। अन्य काव्यों में प्रभात-वर्णन के नाम पर पिष्टपेषण अधिक हुआ है। कीतिराज का यह वर्णन कुछ लम्बा अवश्य है, किन्तु वह यथार्थता तथा सरसता से परिपूर्ण है। माघ की भांति उसने न तो दूर की कौड़ी फेंकी है और न वह ज्ञान-प्रदर्शन के फेर में पड़ा है। उसने कुशल चित्रकार की भांति, अपनी प्रांजल शैली में, प्रातःकालीन प्रकृति के मनोरम चित्र अंकित करके तत्कालीन वातावरण को उजागर कर दिया है। मागधों द्वारा राजस्तुति, हाथी के जाग कर भी, मस्ती के कारण, आंखें न खोलने तथा करवट बदल कर शृंखला-रव करने और घोड़ों द्वारा नमक चाटने की रूढि का भी, इस प्रसंग में, प्रयोग किया गया है । अपनी स्वाभाविकता तथा मार्मिकता के कारण कीतिराज का यह वर्णन उनम प्रभात-वर्णनों से होड़ कर सकता है। ____ नायक को देखने को उत्सुक पौर युवतियों की आकुलता तथा तज्जन्य चेष्टाओं का वर्णन करना संस्कृत-महाकायों की एक अन्य बहु-प्रचलित रूढि है, जिसका प्रयोग नेमिनाथ महाकाव्य में भी हुआ है । बौद्ध कवि अश्वघोष से आरम्भ होकर कालिदास, माघ, श्रीहर्ष आदि से होती हुई यह रूढि कतिपय जैन महाकाव्यों का अनिवार्य-सा अंग बन गया है। अश्वघोष और कालिदास का यह वर्णन अपने सहज लावण्य से 'चमत्कृत है । परवर्ती कवियों के वर्णनों में इन्हीं के भावों की प्रतिध्वनि सुनाई देती है। माघ के वर्णन में, उनके अन्य अधिकांश वर्णनों के समान, विलासिता की प्रधानता है । कीतिराज का सम्भ्रम-चित्रण यथार्थता से ओत-प्रोत है, जिससे पाठक के ६. ध्याने मनः स्वं मुनिभिविलम्बितं विलम्बितं कर्कशरोचिषा तमः । .. सुष्वाप यस्मिन् कुमुदं प्रभासितं प्रभासितं पंकजबान्धवोपलैः ॥ नेमिनाथकाव्य, २.४१. १०. वही, २.५४
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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