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________________ जैन संस्कृत महाकाव्य के काव्य पर आधारित है। किन्तु नेमिचरित का एक प्रसंग ऐसा है, जिसमें वाग्भट तथा कीतिराज दोनों ने परम्परागत कथा-रूप में नयी उद्भावना की है। पौराणिक स्रोतों के अनुसार श्रीकृष्ण यह जानकर कि मेरी पत्नियों के साथ जलविहार करते समय नेमिकुमार के हृदय में काम का अंकुर फूट चुका है, उनका सम्बन्ध भोजसुता राजीमती से निश्चित कर देते हैं। किन्तु नेमि भावी हिंसा से उद्विग्न होकर विवाह को अधर में छोड़ देते हैं और परमार्थसिद्धि की साधना में लीन हो जाते हैं।" नेमिनाथ वीतराग होकर भी अपनी मातृतुल्या भाभी के प्रति आकृष्ट हों, यह क्षुद्र आचरण उनके लिये असम्भाव्य है। इस विसंगति को दूर करने के लिये वाग्भट ने प्रस्तुत सन्दर्भ को नया रूप दिया है, जो पौराणिक प्रसंग की अपेक्षा अधिक संगत है। उनके काव्य में (१-१-१०) स्वयं राजीमती रैवतक पर्वत पर युवा नेमिकुमार को देखकर, उनके रूप पर मोहित हो जाती है और उसमें पूर्वराग का उदय होता है। उधर श्रीकृष्ण नेमिकुमार के माता-पिता के अनुरोध से ही उग्रसेन से विवाह-प्रस्ताव करते हैं। कीत्तिराज इस परिवर्तन से भी सन्तुष्ट नहीं हुए। उन्हें राजीमती जैसी सती का साधारण नायिका की भाँति नायक को देखकर कामाकुल होना औचित्यपूर्ण प्रतीत नहीं होता। फलतः नेमिनाथमहाकाव्य में कृष्ण की पत्नियां विविध तकों तथा प्रलोभनों से नेमि को कामोन्मुख करने की चेष्टा करती हैं। उनके विफल होने पर माता शिवा उन्हें विवाह के लिए प्रेरित करती हैं, जिनके आग्रह को नेमिनाथ अस्वीकार नहीं कर सके (६.४-४१)। नेमि की स्वीकृति से उनके विवाह का प्रबन्ध करना निस्सन्देह अधिक विचारपूर्ण तथा उनके उदात्त चरित्र की गरिमा के अनुकूल है। इससे राजीमती के शील पर भी आंच नहीं आती। कीतिराज ने प्रस्तुत सन्दर्भ के गठन में अवश्य ही अधिक कौशल का परिचय दिया है। ६. नेमिनाथमहाकाव्य, १०.२८-३७, ११.१-१६, त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (पूर्वोक्त), पृ० २६१-२६२ तुलना कीजिए-सो ऊण रायकन्ना पव्वज्ज सा जिणस्स उ। नीहासा य निराणन्दा सोगेण उ समुत्थया ॥ __ उत्तराध्ययनसूत्र, २२.२८ ७. हरिवंशपुराण, ५५.७१-७२,८४-१००, उत्तरपुराण, ७१.१४३-१७० त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित में भी कृष्णपत्नियों तथा नेमिकुमार की जलक्रीडा का वर्णन है, किन्तु उसमें नेमि, श्रीकृष्ण की पत्नियों के अनुनय से, विवाह की स्वीकृति देते हैं । पूर्वोक्त अंग्रेजी अनुवाद, पृ. २५३-२५५ ८. नेमिनाथमहाकाव्य के आधार स्रोतों के विस्तृत विवेचन के लिये देखिए काव्य के हमारे संस्करण को भूमिका, पृ. ३३-३८
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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