SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 64
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४९ काव्यमण्डन : मण्डन है। प्रथम सर्ग में अन्य वीरों के साथ पाण्डवकुमारों के विलक्षण शौयं के वर्णन में मुख सन्धि मानी जा सकती है, क्योंकि यहां बीजरूप अर्थ प्रकृति वर्तमान है । द्वितीय से चतुर्थ सर्ग तक परिवर्तनशील ऋतुओं से पाण्डवों के प्रमुदित होने तथा दुर्योधन की ईर्ष्या एवं कपटनीति से उनके लाक्षागृह में अग्निज्वाला में फंसने किन्तु भूमिविवर से बच निकलने के वर्णन में बीज का कुछ लक्ष्य तथा कुछ अलक्ष्य रूप में विकास होता है । अतः यहां प्रतिमुख सन्धि है। पांचवें से नवें सर्ग तक गर्भ सन्धि है। क्योंकि यहां तीर्थाटन के द्वारा समय-यापन करने से पाण्डवों को फल प्राप्ति की आशा होती है परन्तु दनुज किर्मीर द्वारा उन्हें बन्दी बना कर कुलदेवी को उनकी बलि देने के लिये तैयार होने तथा किर्मीर एवं बकासुर के साथ भीम के युद्ध की घटनाओं से उन्हें चिन्ता होती है। आशा-निराशा का यह द्वन्द्व गर्भसन्धि की सृष्टि करता है। दसवें से बारहवें सर्ग तक ब्राह्मणवेश में अर्जुन के द्वारा राधायन्त्र को बींध कर द्रौपदी को प्राप्त करने से फलप्राप्ति की सम्भावना का गर्भसन्धि की अपेक्षा अधिक विकास होता है, किन्तु हताश कौरवों से युद्ध करना अभी शेष है जिससे कुछ सन्देह बना रहता है । अतः यहां विमर्श सन्धि है । तेरहवें सर्ग में निर्बहण सन्धि विद्यमान है । यहां कृष्णमिलन के पश्चात् पाण्डव द्रौपदी के साथ सहर्ष हस्तिनापुर लौट जाते हैं, जो इस काव्य का फलागम है। भाषागत प्रौढता, शैली की गम्भीरता, विद्वत्ताप्रदर्शन की प्रवृत्ति, युगजीवन का चित्रण आदि तत्त्व काव्यमण्डन के महाकाव्यत्व को पुष्ट करते हैं। कविपरिचय तथा रचनाकाल ____ मण्डन ने काव्यमण्डन तथा अपनी अन्य कृतियों में अपनी वंशपरम्परा, धार्मिक वृत्ति आदि की पर्याप्त जानकारी दी है तथा स्थितिकाल का भी एक महत्त्व पूर्ण संकेत किया है । उसके जीवनवृत्तपर आधारित महेश्वर के काव्यमनोहर में भी मण्डन तथा उसके पूर्वजों का विस्तृत एवं प्रामाणिक इतिहास निबद्ध है । उक्त स्रोतों के अनुसार काव्यमण्डन का कर्ता श्रीमाल वंश का भूषण था। उसका गोत्र सोनगिर था तथा वह खरतरगच्छ का अनुयायी था। उसके पितामह झंझण के छह पुत्र थे -चाहड़, बाहड़, देहड़, पद्म, पाहुराज तथा कोल । काव्यकार मण्डन बाहड़ का द्वितीय तथा कनिष्ठ पुत्र था । मण्डन को नयकौशल तथा मन्त्रित्व उत्तराधिकार में काव्यमण्डन, १३-५४ तथा श्रीमद्वाहडनन्दनः समधरोऽभूभाग्यवान्सद्गुणोऽ स्त्येतस्यावरजो रजोविरहितो भूमण्डनं मण्डनः । श्रीमान्सोनगिरान्वयः खरतरः श्रीमालवंशोद्भवः सोऽकार्कत्किल काव्यमण्डनमिदं विद्वत्कवीन्द्रप्रियः ॥ १३-५५ चम्पूमण्डन, ७-६, कादम्बरीमण्डन, १.४-८, काव्यमनोहर, ६.२४., शृंगारमण्डन, १०५-१०७.
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy