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________________ ५० जैन संस्कृत महाकाव्य मिले थे। आभू से लेकर झंझण संघवी तक उसके समस्त पूर्वज देश के विभिन्न शासकों के मन्त्री रह चुके थे। काव्य के वातावरण को देखते हुए मण्डन की धार्मिक प्रवृत्ति के सम्बन्ध में भ्रान्ति हो सकती है तथा पाठक उसे भागवत अथवा शैव धर्म का अनुयायी मान सकता है । काव्य में जिस तन्मयता से पुराणप्रसिद्ध तीर्थों, नदियों तथा शंकर के विभिन्न रूपों का स्तुतिपरक वर्णन किया गया है, उससे इस धारणा को बल मिलता है । परन्तु मन्डन ने जिनमत में अपनी दढ़ आस्था व्यक्त की है। प्रत्येक सर्ग के अन्तिम पद्य में तथा अन्यत्र भी उसने निर्धान्त शब्दों में जिनेश्वर की वन्दना की है तथा अलंकार मण्डन में स्वयं को 'जिनभक्त' कह कर भ्रम का निवारण किया है। अतः मण्डन के जैन होने में सन्देह नहीं रह जाता। उसके सभी पूर्वज निष्ठावान् जैन श्रावक थे जिन्होंने तीर्थयात्रा आदि सुकृत्यों से प्रभूत ख्याति अर्जित की थी। काव्यमण्डन के मंगलाचरण में जिस 'धाम' तथा 'परेश' की स्तुति की गयी है, उससे नयचन्द्र की भांति मण्डन को भी 'परम जिन' अभिप्रेत है। काव्य में अन्यत्र भी प्राणिहिंसा तथा परपीड़न का विरोध करके उसने अपनी अहिंसावादी जैन वृत्ति का परिचय दिया है । अतः काव्यकार मण्डन को 'कामसमूह' (१४५७ ई. में रचित) के प्रणेता मन्त्री मण्डन से अभिन्न मानना भ्रामक होगा क्योंकि वह जाति से नागर ब्राह्मण था तथा उसके पितामह का नाम नारायण था और वह श्रीमाल वंश में नहीं प्रत्युत भामल्लवंश में उत्पन्न हुआ था। श्रीमाल कुल ने मालव के साहित्यिक तथा राजनीतिक जीवन में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की है। उसमें मण्डन, पुंजराज तथा मेघ जैसे साहित्यकार-प्रशासक हुए हैं। मण्डन नीतिकुशल मन्त्री तथा बहुमुखी विद्वान् था । व्याकरण, अलंकारशास्त्र, काव्य, संगीत आदि साहित्य के विभिन्न अंगों को उसकी प्रतिभा का आलोक प्राप्त हुआ है । प्रस्तुत काव्य के अतिरिक्त मण्डन की पांच अन्य रचनाएं प्रकाशित हैं । चम्पूमण्डन के सात पटलों में भगवान् नेमिनाथ का उदात्त चरित वर्णित है । मालव नरेश के अनुरोध पर रचित कादम्बरीमण्डन बाणभट्ट की कादम्बरी का पद्यबद्ध सार है । चन्द्रविजयप्रबन्ध में चन्द्रोदय से चन्द्रास्त तक चन्द्रमा की विभिन्न अवस्थाओं का चारु चित्रण किया गया है। अलंकारमण्डन के पांच परिच्छेदों में साहित्यशास्त्र का ३. काव्यमनोहर, ६.१-४७ ४. काव्यमण्डन, १३.५२,५६ तथा अलंकारमण्डन, ५.७५ इति जिनभक्तेन मण्डनेन विनिमिते ।। पंचमोऽयं परिच्छेदो जातोऽलंकारमण्डने ॥ ५. काव्यमनोहर, ६.२१-३७.
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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