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________________ २. काव्यमण्डन : मण्डन ... काव्यमण्डन' आलोच्य युग का कदाचित् एक मात्र ऐसा शास्त्रीय महाकाव्य है, जिसका रचयिता कोई दीक्षित साधु नहीं अपितु मण्डपदुर्ग का एक प्राक्क, मन्त्री भण्डन है । इसीलिये यह साम्प्रदायिक आग्रह अथवा धर्मोत्साह के संकीर्ण उद्देश्य से प्रेरित नहीं है । तेरह सर्गों के इस काव्य में महाभारत का एक लघु प्रसंग, महाकाव्योचित विस्तार के साथ, काव्यशैली में वर्णित है। काव्यमण्डन की विशेषता यह है कि इसमें जैनेतर कथानक को उसके मूल परिवेश में प्रस्तुत किया गया है । अन्य जैन काव्यकारों की भाँति मण्डन ने उसे जैन धर्म के रंग में रंगने का प्रयत्न नहीं किया। काव्य का समूचा वातावरण तथा प्रकृति उसके उपजीव्य ग्रन्थ के अनुकूल है। काव्यमण्डन का महाकाव्यत्व काव्यमण्डन की रचना में परम्परागत शास्त्रीय मानदण्डों का पालन किया गया है, यह कथन तथ्य का मात्र पुनराख्यान है। किन्तु काव्यमण्डन की कुछ तात्त्विक विशेषताएँ उल्लेखनीय हैं क्योंकि वे सर्वसुलभ नहीं हैं । यह बहुनायक काव्य हैं। धीरोदात्त गुणों से सम्पन्न पांच पाण्डवकुमार इसके महान् तथा तेजस्वी नायक हैं । इस दृष्टि से काव्यमण्डन की तुलना रघुवंश से की जा सकती है, जिसमें इक्ष्वाकु-- वंश के अनेक शासक नायक के पद पर आसीन हैं। काव्यमण्डन उन अल्पसंख्यक जैन काव्यों में है, जो अपने कथानक के लिये पंचम वेद (महाभारत) के ऋणी हैं। परम्परागत चतुर्वर्ग में से मण्डन की रचना का उद्देश्य 'अर्थ' है। प्रस्तुत काव्य के परिवेश में 'अर्थ' का तात्पर्य लौकिक अभ्युदय है । द्रौपदी को प्राप्त करने के पश्चात् पाण्डव घुमन्तू जीवन छोड़कर पुनः अपनी राजधानी हस्तिनापुर लौट जाते हैं। वस्तुव्यापार के विविध विस्तृत वर्णन वर्ण्यविषय की अपेक्षा वर्णन-प्रकार को अधिक महत्त्व देने वाली प्रवृत्ति के द्योतक हैं। छन्दों के विधान में मण्डन को शास्त्रीय लक्षणों की परिधि मान्य नहीं है । इसके अधिकांश सर्गों में विविध छन्दों का प्रयोग हुआ है। इससे महाकाब्य के तात्त्विक स्वरूप में तो कोई अन्तर नहीं आता किन्तु छन्दबाहुल्य कथा-प्रवाह में अवांछनीय अवरोध उत्पन्न करता है। काव्यमण्डन के सीमित इतिवृत्त में भी नाट्यसन्धियों की सफल योजना हई है, जिनका लक्षणकारों ने कथानक को सुगठित बनाने के लिये निश्चित विधान किया १. श्रीहेमचन्द्राचार्य ग्रन्थावली, नं. १७, सम्वत् १९७६.
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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