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________________ पार्श्वनाथचरित : हेमविजयगणि ४२३ के पट्टधर विजयसेनसूरि के सुयोग्य शिष्य थे ! हीरविजय की परम्परा मुनि जगच्चन्द्र तक पहुँचती है जिनकी तीव्र तपश्चर्या के कारण उनका गच्छ तपागच्छ नाम से ख्यात हुआ था। पार्श्वनाथचरित की रचना विजयसेनसूरि के धर्म-शासन में, सम्वत् १६३२ (सन् १५७५), फाल्गुन शुक्ला द्वितीया को सम्पन्न हुई थी। दृक्-कृशानु-रस-सोममितेऽब्दे शक्रमन्त्रिणि दिने द्वयसंज्ञे । हस्तमे च बहुलेतरपक्षे फाल्गुनस्य चरितं व्यरचीदम् ॥ प्रशस्ति, १४ विजयप्रशस्ति की टीकाप्रशस्ति के अनुसार पार्श्वनाथचरित कवि के बाल्यकाल की कृति है किन्तु इसका आस्वादन प्रौढ जन ही कर सकते हैं । यह पार्श्वनाथचरित की कविता का उदार मूल्यांकन है। टीकाप्रशस्ति में हेमविजय की रचनाओं की जो तालिका दी गयी है, उससे उनकी काव्य-प्रतिभा तथा साहित्यिक गतिविधि का पर्याप्त संकेत मिलता है। प्रस्तुत काव्य के अतिरिक्त उन्होने कथारत्नाकर, कीर्तिकल्लोलिनी, अन्योक्ति-महोदधि, सूक्तरत्नावली, विजय प्रकाश, स्तुतित्रिदशतरंगिणी, कस्तूरीप्रकर, सद्भावशतक, विजयस्तुतयः, ऋषभशतक तथा अन्य सैकड़ों स्तोत्रों की रचना की थी। उनकी साहित्य-साधना की परिणति विजयप्रशस्तिकाव्य में हुई, जो उनके साहित्य-प्रासाद का स्वर्णकलश है।" हेमविजय की कविता अपने लालित्य के कारण विद्वानों में प्रसिद्ध रही है। हेमविजय के वाग्लालित्य की पुष्टि उनके ग्रन्थों से होती है । पार्श्वनाथचरित की पूर्ति सम्वत् १६३२ (१५७५ई०) में हुई। कथारत्नाकर सम्वत् १६५७ (सन् १६००) में लिखा गया। ऋषभशतक १६५६ सम्वत् (सन् १५६६) की रचना है । अत: सोलहवीं शताब्दी ई० के उत्तरार्द्ध तथा सतरहवीं शताब्दी के प्रारम्भिक भाग को हेमविजय का स्थितिकाल मानना सर्वथा युक्तियुक्त होगा। कथानक पार्श्वनाथचरित छह सर्गों का महाकाव्य है। इसका कथानक दो पृथक भागों में विभक्त किया जा सकता है। प्रथम तीन सर्ग काव्य की भूमिकामात्र हैं। इनमें काव्यनायक पार्श्वनाथ के पूर्वभवों का विस्तृत तथा विचित्र वर्णन है। पोतना-नरेश अरविन्द के पुरोहित विश्वभूति के पुत्र मरुभूति का जीव, प्रथम भव के अग्रज कमठ के द्वेष का फल भोगता हुआ, आठ योनियों में भटक कर, अपने सम्य५. पार्श्वनाथचरित, प्रशस्ति, ७-१३ ६. प्रापत् बाणवसुद्वयोडुपमिते तपोभिस्तपे__ त्याख्याति त्रिजगज्जनश्रुतिसुखां यो दूरभीभूरिभिः ॥ वही, २ ७. बाल्येऽप्य बालधीगम्यं श्रीपार्श्वचरितं महत् । विजयप्रशस्ति, टीकाप्रशस्ति, ५२ 5. वहा, ५५
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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