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________________ ४२२ जैन संस्कृत महाकाव्य अधिकतर भाग पार्श्व प्रभु के पूर्व भवों के वर्णनों से ही आच्छादित है। पुरोहित वसुभूति के पुत्रों, कमठ तथा मरुभूति का वैर निरन्तर दस जन्मों तक चलता है जिसके कारण कमठ का जीव अपने अनुज को कहीं चैन नहीं लेने देता। मरुभूति सम्यक्त्व तथा शुक्लध्यान के कारण आठ भवों के पश्चात् वाराणसी-नरेश अश्वसेन के आत्मज पार्श्व के रूप में जन्म लेता है । इसके विपरीत कमठ, कषाय तथा आर्तध्यान के फलस्वरूप, लोमहर्षक नारकीय यातनाएं सह कर, वर्तमान भव में भी, मेघमाली असुर बनता है तथा नाना उपसर्गों से वैरशोधन का जघन्य उद्योग करता है । ब्राह्मण जन्म में अपनी पत्नी की दुश्चरित्रता तथा हृदयहीनता के कारण सार्थवाह सागरदत्त, वर्तमान जन्म में नारी-मात्र से विरक्त हो जाता है। शबर के रूप में, पशुयुगलों को नियुक्त करने के अपराध के परिणाम-स्वरूप बन्धुदत्त को पत्नीवियोग तथा कारा-दण्ड सहना पड़ता है। पार्श्वनाथचरित में धर्मदेशनाओं की विस्तृत योजना की गयी है। काव्य का कोई ऐसा सर्ग नहीं जिसमें इन धर्मोपदेशों का समावेश न किया गया हो । पांचवें सर्ग में इस उपदेशात्मक प्रवृत्ति का प्रबल रूप दिखाई देता है । काव्य में इन देशनाओं का उपयोग जैनधर्म एवं दर्शन के प्रतिपादन तथा उनकी गौरववृद्धि आदि के लिये किया गया है । अरविन्द, कि रणवेग, वज्रबाहु, स्वर्णबाहु, वज्रनाभ, पार्श्व आदि के संयम ग्रहण करने का तात्कालिक कारण ये धर्मोंपदेश ही हैं । धार्मिक उपदेशों की भाँति स्तोत्रों का भी काव्य में अबाध समावेश हुआ है। काव्य-नायक के जीवन से सम्बन्धित ऐसा कोई प्रसंग नहीं है, जब देवों द्वारा उनकी भक्ति-विह्वल स्तुति न की गयी हो । कथा के भीतर कथा कहने की पौराणिक प्रवृत्ति का पार्श्वनाथचरित में उग्र रूप दिखाई देता है। पार्श्वनाथ के पूर्व भवों के विस्तृत विवरण के अतिरिक्त मुख्य कथा में पोतनाधिपति अरविन्द, विद्याधर विद्युद्गति, राजकुमारी पद्मा, सार्थवाह सागरदत्त तथा बन्धुदत्त आदि की अवान्तर कथाएँ इस प्रकार पल्लवित की गई हैं कि कहीं-कहीं मूलकथा गौण-सी प्रतीत होने लगती है, यद्यपि इनका उद्देश्य कर्म की अपरिहार्यता आदि का प्रतिपादन करके काव्य की पौराणिकता को प्रगाढ बनाना है। कवि तथा रचनाकाल पार्श्वनाथचरित की प्रशस्ति में हेमविजयगणि ने अपनी गुरु-परम्परा का पर्याप्त परिचय दिया है। उनके विजयप्रशस्तिकाव्य की गुणविजय-कृत टीकाप्रशस्ति में मुनि-परम्परा के अतिरिक्त कवि की रचनाओं की महत्त्वपूर्ण जानकारी उपलब्ध है। इनके आधार पर हेमविजय के स्थितिकाल तथा साहित्यक उपलब्धियों का निश्चित विवरण प्राप्त है। हेमविजय विद्वद्वर कमलविजय के शिष्य थे। कमलविजय के गुरु अमरविजय, तपागच्छ के प्रख्याततम आचार्य हीरविजयसूरि
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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