SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 439
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन संस्कृत महाकाव्य क्त्व तथा उपसर्ग सहन करने की क्षमता के कारण, अन्ततः वाराणसी- नरेश अश्वसेन के पुत्र के रूप में उत्पन्न होता है । यहीं, चतुर्थ सर्ग से काव्य का मुख्य कथानक प्रारम्भ होता है । ४२४ दिक्कुमारियाँ नाना दिशाओं से आकर शिशु का जातकर्म करती हैं । उसका स्नात्रोत्सव सुरपति इन्द्र तथा अन्य देवों के द्वारा ठेठ पौराणिक रीति से मेरु पर्वत पर सम्पन्न किया जाता है । माता वामा ने गर्भावस्था में, रात्रि के गहन अन्धकार में भी, अपने पार्श्व में रेंगता सांप देखा था, अतः शिशु का नाम पार्श्व रखा गया । एक दिन कुशस्थल की राजकुमारी प्रभावती किन्नर - मिथुन से युवा पार्श्व के सौन्दर्य का वर्णन सुनकर उस पर मोहित हो जाती है । उसमें पूर्वराग का उदय होता है । कुविन्ददयिता ( तन्तुवाय की ढरकी) की तरह वह पल में बाहर, पल में भीतर, पल में नीचे, पल में ऊपर उसे कहीं भी चैन नहीं मिलती । उसका पिता उस स्वयम्वरा को तुरन्त पार्श्व के पास भेजने का निर्णय करता है, किन्तु तभी कलिंग का न्यवन शासक उस सुन्दरी को हथियाने के लिये प्रसेनजित् पर आक्रमण कर देता है । उसकी पराक्रमी सेना ने कुशस्थल को ऐसे घेर लिया जैसे आप्लावन के समय पृथ्वी जलराशि में मज्जित हो जाती है ।' पार्श्व यवन- नरेश को दण्डित करने के लिये अपनी सेना के साथ कूच करता है परन्तु कलिंगराज उसकी दिव्यता से हतप्रभ होकर बिना युद्ध किये, उसकी अधीनता स्वीकार कर लेता है। वैषयिक सुखों से पराङ्मुख तथा संवेग में तत्पर पार्श्वनाथ, अपना भोग-कर्म समझकर तथा पिता के मनोरथ की पूर्ति के लिये प्रभावती से विवाह करते हैं । प्रभावती कृतार्थ हो जाती है। पांचवें सर्ग में, एक प्रासाद में अंकित नेमिदेव का चरित्र देखकर पार्श्व को संवेगोत्पत्ति होती है और वे उन्हीं की भाँति विषयभोग छोड़कर, तीन सौ राजपुत्रों के साथ, प्रव्रज्या ग्रहण करते हैं। दीक्षा के साथ ही उनमें मन:पर्यय ज्ञान स्फुरित हुआ । क्रमशः विहार करते हुए पार्श्वप्रभु ने कोपटक सन्निवेश में के घर त्रिकोटिशुद्ध पायत से पारणा की । पारणास्थल पर धन्य ने प्रभु की चरण-पादुकाओं से युक्त पीठ की स्थापना की। शिवपुरी के कौशाम्बवन में जहाँ पन्नगराज ने पूर्वोपकारों के कारण, प्रभु के ऊपर फणों का छत्र धारण किया था, वह स्थान अहिच्छत्रा नाम से प्रसिद्ध हुआ । कठ के जीव नीच मेघमाली असुर ने पार्श्वनाथ को दारुण उपसर्ग दिये परन्तु वे सब ऐसे निरर्थक हो गये जैसे संयमी के लिये नारी के कटाक्ष | वाराणसी में धातकी वृक्ष के नीचे, उन्हें चैत्र कृष्णा चतुर्थी ४ ६. कियन्मात्रं स पार्थ्यो यः परिणेता प्रभावतीम् । वही, ४.५४० तं तत् पुरं भूमिरिव पायोभिरब्धिना । वही, ४ . ५४६ १०. ईप्सितार्थे हि सम्पन्ने प्रमोदः किंकरायते । वही, ४.६७५
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy