SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 436
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पार्श्वनाथचरित : हेमविजयगणि ४२१ विविध वस्तु-वर्णन पार्श्वनाथचरित को पौराणिकता की ऊब से बचाने में समर्थ हैं। इसकी भाषा को प्रौढ़ तो नहीं कहा जा सकता परन्तु वह गरिमा से वंचित नहीं है। काव्य में प्रक्षिप्त युग-चेतना का प्रतिबिम्ब इसके महाकाव्यत्व को दृढता प्रदान करता है । अत: पार्श्वनाथचरित को महाकाव्य मानना उचित है यद्यपि कवि ने उसे कहीं भी 'महाकाव्य' संज्ञा से अभिहित नहीं किया है । पार्श्वनाथचरित की पौराणिकता पार्श्वनाथचरित पौराणिक महाकाव्य है, यह उक्ति तथ्य की पुनरुक्ति है। इसमें अतिप्राकृतिक घटनाओं की भरमार है। स्वयं काव्यनायक का व्यक्तित्व देवत्व से ओतप्रोत है । उनके जीवन से सम्बन्धित समस्त अनुष्ठानों का आयोजन, देवराज के नेतृत्व में देवगण करते हैं । जन्माभिषेक, निष्क्रमणोत्सव, दीक्षाग्रहण, पारणा, कैवल्य-प्राप्ति तथा निर्वाण के समय देवगण निष्ठापूर्वक प्रभु की सेवा में तत्पर रहते हैं। अतिप्राकृतिक घटनाएँ पार्श्वनाथचरित को यथार्थ के धरातल से उठाकर रोमांचक काव्यों की श्रेणी में प्रतिष्ठित करती हैं । स्वर्गलोक की प्रख्यात सुघोषा घण्टा का परिमण्डल एक योजन विस्तृत था। शिशु पार्श्व के स्नात्रोत्सव के अनुष्ठान के लिये देवगण जिस विमान में वाराणसी आए थे, वह डेढ़ लाख योजन लम्बा था और उसका सिंहासन रत्नों से निर्मित था । इन्द्र बहुरूपिये की तरह काव्य में स्वेच्छापूर्वक नाना रूप धारण करता है। प्रभु की सेवा का अनुपम पुण्य अर्जित करने के लिये उसने शिशु को मेरु पर्वत पर ले जाते समय एक साथ पांच रूप धारण किये, और अभिषेक सम्पन्न होने पर मायाकार की भांति तत्काल उनका संवरण कर लिया। स्नात्रोत्सव के प्रसंग में उसने चार वृषभों का रूप धारण करके अपने सींगों से निस्सृत दूध की आठ धाराओं से प्रभु को स्नान कराने का अलौकिक कार्य सम्पन्न किया। वह शिशु पार्श्व के अंगूठे को अमृत से परिपूर्ण कर देता है जिससे क्षुधा शान्त करने के लिये उसे किसी बाह्य साधन पर निर्भर न रहना पड़े। बन्धुदत्त विद्याधरों के साथ उड़ कर कौशाम्बी के जिन-मन्दिर में जाता है । पार्श्व प्रभु के समवसरण की एक योजन भूमि में करोड़ों श्रोता आसानी से समा जाते हैं। पौराणिक काव्यों के स्वरूप के अनुरूप पार्श्वनाथचरित में जन्मान्तरों का विस्तृत वर्णन है तथा वर्तमान जीवन के आचरण तथा कार्यकलाप को मानव के पूर्वजन्मों के कर्मों से परिचालित एवं नियन्त्रित माना गया है । काव्य का २. विधाय पंचधाऽऽत्मानं ततः स त्रिदशेश्वरः । पार्श्वनाथचरित, ४.२३४ ३. अथ सौधर्मनायः स चके रूपचतुष्टयम् । वृषाणां वृषमादित्सुरिव जैनं चतुर्विधम् ॥ वही, ४.३०७ संजह वृषरूपाणि मायाकार इव द्रुतम् । वही, ४.३१५ ४. शक्रः संचारयामास स्वाम्यंगुष्ठे सुधामथ । वही, ४.३३४
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy