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________________ यशोधरचरित्र : पद्मनामकायस्थ ४०१ की जीवन्त प्रतिमा है । कुल की गरिमा तथा पति की कीत्ति पर पानी फेर कर वह विकलांग हाथीवान के चंगुल में फंस जाती है । अपना मार्ग निष्कण्टक बनाने के लिये उसे पति को विष देकर मारने में भी संकोच नहीं है। प्रत्येक चरित्रहीन व्यक्ति की तरह वह ढोंगी है । कुबड़े के हाथों बिक कर भी वह पति के सामने प्रेम का ढोंग रचती है और निर्लज्जता से उसके साथ दीक्षा ग्रहण करने का प्रस्ताव करती है। वह दुष्टा उसे पातिव्रत्य की महिमा पर एक भाषण सुनाने से भी नहीं चूकती। ____ गौण पात्रों में मारिदत्त क्रूर शासक है। पिता के निधन के पश्चात् वह कुसंगति में पड़ जाता है । वह योगी भैरवानन्द के भुलावे में आकर देवी को नरबलि देने को तैयार हो जाता है, किन्तु प्रतिबोध पाकर तापस-व्रत ग्रहण करता है। यशोमति काव्यनायक यशोधर का पुत्र है। शासक होने के नाते वह जीववध को अपना राजोचित अधिकार समझता है । मुनि सुदत्त के उपदेश से वह भी चारित्र्यव्रत ग्रहण करता है। दर्शन अपने प्रचारात्मक उद्देश्य के अनुरूप पद्मनाभ ने यशोधरचरित्र में जैन दर्शन के कतिपय महत्त्वपूर्ण सिद्धान्तों का विवेचन किया है। कर्म सिद्धान्त जैन दर्शन का केन्द्रबिन्दु है । प्राणी को अपने सदसत् कर्मों का फल अवश्य भोगना पड़ता है । अपने कर्म के कारण कुता देवता बनता है और श्रोत्रिय चाण्डाल (८.५८) । आठवें सर्ग में जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा तथा मोक्ष, इन सात तत्त्वों की विस्तृत मीमांसा की गयी है । जीव का लक्षण चेतनता है । पुद्गल को अजीव कहते हैं (८.२०) । अजीव तथा जीव अथवा देह और आत्मा का सम्बन्ध शंख और उसकी ध्वनि अथवा अरणि एवं उसकी अग्नि के समान है। जिस प्रकार शंख की ध्वनि और और अरणि की आग दिखाई नहीं देती, उसी प्रकार देह की अन्तर्वर्ती आत्मा भी दृष्टिगोचर नहीं है (६.६४,७३) । पांच भूतों के समाहार से शरीर का निर्माण होता है, जीव का नहीं। इसी प्रकार स्पर्श आदि पुद्गल के गुण हैं, आत्मा के नहीं (६.६४,६७) । आत्मा चित्स्वरूप, विमल, ज्ञानात्मक तथा साक्षी है । उसे सामान्यतः कर्मों का भोक्ता माना जाता है (८.६७-६६) । जैन दर्शन में आत्मा की बहुता स्वीकार की गयी है। यदि आत्मा एक अखण्ड है तो विभिन्न व्यक्ति, एक समय में ही; कैसे अलग-अलग आचरण कर सकते हैं (६.१०७)। जीव और पुद्गल का अशुद्ध संयोग आस्रव है । वह दो प्रकार है -- शुभ तथा अशुभ (८.८०-८०) । सब प्रकार के आस्रवों का निरोध संवर कहलाता है। द्रव्य तथा भाव के भेद से वह भी दो प्रकार है। पूर्व कर्मों के क्षय का नाम निर्जरा है। इसके भी दो भेद हैं-सकाया तथा अकाया (८.८६,६४-६५) । समस्त कर्मों के
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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