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________________ ४०० जैन संस्कृत महाकाव्य इमां विनिर्माय कथं कथंचिद् विनिर्मिमाणस्य कचौघमस्याः। सवेपथुः पाणिरभूद् विधातुररालतामेति किमन्यथासौ ॥ ३.५६ किं विद्रुमोऽयं मृदुता क्व तस्मिन्नथ प्रवालः क्व सुधालवोऽपि । बिम्बं किमेतत्सुरभिः क्वेति शक्या न निर्णेतुमिहाधरश्रीः (?) ॥ ३.६० चरित्रचित्रण ___ यशोधरचरित्र में कई पात्र हैं किन्तु नायक यशोधर तथा नायिका अमृतमती के अतिरिक्त किसी का चरित्र अधिक स्पष्ट नहीं है । इसका कारण यह है कि कवि ने उन्हें पौराणिक रेखाओं की चौहद्दी में प्रस्तुत किया है । यशोधर काव्यनायक अभय रुचि पूर्वजन्म का यशोधर है । वह उज्जयिनी नरेश यशोध का पुत्र है । उसके लिए पितृसेवा सर्वोपरि है। उसकी तुलना में राज्य के समस्त वैभव तुच्छ हैं । महाराज यशोध जब उसे राज्यभार सौंपकर प्रव्रज्या ग्रहण करना चाहते हैं, वह, जीमूतवाहन की भाँति, उनके साथ वन जाने को तैयार हो जाता है। पिता के बिना उसके लिए राज्यलक्ष्मी भी अर्थहीन है । त्वया विना कि मम राजलक्ष्म्या त्वया विना किं मम राजभोगः । त्वया समं तात गृहे वसामि त्वया समं चाथ वनं व्रजामि ॥ ३.१२ किन्तु पितृभक्ति के कारण वह, अन्ततः, पिता का आदेश स्वीकार करता है । उसकी आचार-संहिता में पिता की आज्ञा सर्वोपरि है। वह अहिंसा का कट्टर समर्थक है और जीवहत्या को नरक का द्वार मानता है, किन्तु तथाकथित दुःस्वप्न को शान्त करने के लिये वह, माता के आग्रह से सही, कुल-देवता को बलि देता है। यह उसके निश्चय की अस्थिरता का सूचक है । यही चारित्रिक विरोध उसके पत्नी के प्रति व्यवहार में दृष्टिगत होता है । अमृतमती की दुश्चरित्रता का विश्वास होने पर तथा हाथीवान के साथ उसे रमण करती देख कर भी वह उसके प्रेम के झूठे प्रदर्शन से इतना विचलित हो जाता है कि उसे अपनी आँखों पर ही सन्देह होने लगता है । वह पत्नी के उद्देश्य पर सन्देह करता है किन्तु उसका भोजन का निमन्त्रण बिना हिचक स्वीकार कर लेता है । इस चलचित्तता का मूल्य उसे अपने प्राणों से चुकाना पड़ता है। जीववध के फलस्वरूप वह अनेक अधम योनियों में भटक कर अपनी पुत्रवधू के गर्भ से उत्पन्न होता है। मुनि सुदत्त से व्रत ग्रहण करके वह सद्गति को प्राप्त होता है। अमृतमती ___ विराटदेश की सुन्दरी राजकुमारी अमृतमती काव्य की नायिका है । उसके बाह्य सौन्दर्य के पर्दे में जघन्यतम कुरूपता छिपी है। वह दुश्चरित्रता तथा धूर्तता
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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