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________________ ४०२ जैन संस्कृत महाकाव्य विनाश से मोक्ष की प्राप्ति होती है। इन सात तत्त्वों के सम्पूर्ण ज्ञान से सम्यक दर्शन प्राप्त होता है । सम्यक् दर्शन के बिना जीव कठोर यातनाएँ सहता हुआ अनन्त योनियों में घूमता है (८.२२-२३)। धर्म मनुष्य को मुक्ति में धारण करता है, यही उसकी सार्थकता है । वह आत्मभाव से एक प्रकार का तथा रत्नत्रय के कारण तीन प्रकार का है (८.१११)। भाषा प्रौढ़ तथा अलंकृत भाषा से विद्वद्वर्ग का बौद्धिक रंजन करना कवि का अभीष्ट नहीं है । पद्मनाभ ने काव्य में अपने भाषा-सम्बन्धी आदर्श का संकेत किया है। उसके विचार में प्रचण्ड पदविन्यास काव्य के लिये घातक है । सहृदयों के लिये भाषायी क्लिष्टता रुचिकर नहीं है। उनकी तुष्टि ललित (सरल) भाषा से होती प्रचण्डः पदविन्यासः कवित्वं हि विडम्बना । ललितेन कवित्वेन तुष्यन्ति परमार्थिनः ॥१.५ इस मानदण्ड से मूल्यांकन करने पर ज्ञात होगा कि पद्मनाभ ने काव्य में सर्वत्र अपने आदर्श का पालन किया है। यशोधरचरित्र को प्रकृति ही ऐसी है कि इसमें क्लिष्टता अथवा अन्य भाषात्मक जादूगरियों के लिये स्थान नहीं है । पौराणिक तथा प्रचारवादी रचना होने के नाते इसमें सर्वत्र प्रसादपूर्ण प्रांजल भाषा का प्रयोग किया गया है। पौराणिक काव्यों के लेखकों का उद्देश्य ही सुगम भाषा में पुराणपुरुषों का गुणगान करना तथा उनके चरित के व्याज से अथवा उसके परिप्रेक्ष्य में जैन दर्शन के सिद्धातों का प्रतिपादन करना है। भाषा की यह सुगमता संवादों में चरम सीमा को पहुँच गयी है। इस दृष्टि से दीक्षा ग्रहण करने से पूर्व महाराज यशोध द्वारा अपने पुत्र यशोधर को दी गयी शिक्षा उल्लेखनीय है । यहाँ भाषा की सुबोधता, प्रतिपादित राजधर्म की प्रभावशालिता को दूना कर देती है। राजन्गुणानर्जय साधुवृत्त्या निजाः प्रजाः पालय पुत्रवृत्त्या। दोषान्सदा वर्जय नीतिवृत्त्या स्वमानसं मार्जय धर्मवृत्त्या ॥३.१६ साम्ना यदा सिद्धिमुपैति कार्य न तत्र दण्डो भवता विधेयः। शाम्येद् यदा शर्करयेव पित्तं तदा पटोलस्य किमु प्रयोगः ॥३.२५ यशोधरचरित्र में भाषा की विविधता के लिये अधिक अवकाश नहीं है। सरलता उसकी विशेषता है। परन्तु प्रसंग के अनुसार उस सरलता में वर्णित भावों का पुट आ जाता है। यशोमति की आत्मग्लानि तथा पश्चात्ताप का निरूपण जिस समासरहित पदावली में किया गया है, वह उसकी वेदना को प्रकट करती है। हा हा धिग्दैव किं कुर्यां शरणं कस्य यामि वा। को हि वा रक्षितुं शक्तो मामस्माद् भवबन्धनात् ।।७.१०५ जैन कवियों की शैली के अनुरूप पद्मनाभ ने अपने काव्य में भावपूर्ण सूक्तियों
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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