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________________ जैन संस्कृत महाकाव्य ३६० ( उपजाति), मालिनी, द्रुतविलम्बित, स्वागता, रथोद्धता, अनुष्टुप् तथा शार्दूलविक्रीडित। सप्तम सर्ग में छन्दवैविध्य चरम सीमा को पहुँच जाता है। इसमें प्रयुक्त ५५ छन्द इस प्रकार हैं- समवृत्त: स्वागता, रथोद्धता, शालिनी, वंशस्थ, इन्द्रवंशा, उपजाति, द्रुतविलम्बित, मौक्तिकदाम, तोटक, भुजंगप्रयात, त्रग्विणी, वैश्वदेवी, ताम-, रस, चन्द्रवर्त्म, सुदत्त, वसन्ततिलका, प्रहरणकलिका, मणिगुणनिकर, मालिनी, मृदंग, कामक्रीडा, प्रियंवदा, प्रमिताक्षरा, जलधरमाला, मणिमाला, प्रहर्षिणी, नन्दिनी, रुचिरा, वाणिती, शिखरिणी, हरिणी, पृथ्वी, मन्दाक्रान्ता, कुसुमितलता, मेघविस्फू - जिता, शार्दूलविक्रीडित, सुवदना, स्रग्धरा, भद्रक, अश्वललित, तन्वी, क्रौंचपदा, भुजंगविजृम्भित, चण्डवृष्टिदण्डक, चण्डकाल । अर्द्धसमवृत्त : आख्यान की, विपरीताख्यानकी, पुष्पिताग्रा, उपचित्र, हरिणाप्लुता, अपरवक्त्र, द्रुतमध्या । विषमवृत्त: पदचतुरुर्व, षट्पदी, विषमाक्षरा । अष्टम सर्ग का मुख्य छन्द अनुष्टुप् है । स्रग्धरा, आर्या, वसन्ततिलका, उपजाति, वंशस्थ, शिखरिणी तथा शार्दूलविक्रीडित इस सर्ग में प्रयुक्त अन्य छन्द हैं । नवें सर्ग में भी श्लोक का प्राधान्य है । इसके अतिरिक्त इस सर्ग में उपजाति, इन्द्रवज्रा, रथोद्धता, शार्दूलविक्रीडित तथा शिखरिणी का प्रयोग किया गया है । सब मिलाकर श्रीधरचरित में ६६ छन्द प्रयुक्त किये गये हैं । निस्सन्देह प्रस्तुत काव्य कवि के अगाध छंदशास्त्रीय पाण्डित्य का प्रतीक है । छन्दों के प्रायोगिक उदाहरण प्रस्तुत करने के कारण श्रीधरचरित छन्दों के बोध के लिये लक्षणग्रन्थों से भी अधिक उपयोगी है । श्रीधरचरित पौराणिक काव्य होता हुआ भी शास्त्रीय काव्य का आनन्द देता है । छन्दों के विनियोग की दृष्टि से यह शास्त्र - काव्य का स्पर्श करता है । माणिक्यसुन्दर प्रतिभाशाली तथा सुरुचि सम्पन्न कवि है । उसके उद्देश्य तथा धार्मिक वृत्ति ने यद्यपि उसकी प्रतिभा को सीमित किया है तथापि वह ऐसे काव्य की रचना करने में सफल हुआ है, जो समर्थ कवित्व, कमनीय कल्पना तथा मधुर भाषा के कारण साहित्य में सम्मानित पद का पात्र है । परिशिष्ट श्रीधरचरित में प्रयुक्त कुछ छन्दों के लक्षण तथा उदाहरण : १. वानवासिका : मात्राष्टकात् न्ले जे वा वानवासिका । अथो नरेन्द्रः प्रधानवर्गान्, महोत्सवानां विधौ न्यदीक्षत् । विभूषितं तैः पुरं च चंच ध्वजव्रजाद्यैः समं समन्तात् ।। ५.४८ २. वदनक : षट्कलाच्चतुष्कलद्वयं ततो द्वे कले वदनकम् । पुरतश्चाचलिरद्भुतरूपं, वर्णयति स्म गुणैरिति भूपम् । मागधजनता वलितग्रीवं तं पश्यन्ती महसा पीदम् ।। ५.५४
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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