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________________ श्रीधरचरित : माणिक्यसुन्दरसूरि है, माणिक्यसुन्दर सर्वत्र उसकी ह्रस्वता के पक्ष में हैं । 1 प्रथम सर्ग में आधारभूत नियमों के निरूपण के पश्चात् माणिक्यसुन्दर ने द्वितीय सर्ग में आर्या, अत्यार्या, गीति, उद्गीति, उपगीति, आर्यागीति, वैतालीय, प्राच्यवृत्ति, चारुहासिनी तथा अपरान्तिका के लक्षण दिये हैं, जिन्हें दूसरे तथा तीसरे सर्ग में उदाहृत किया गया है । चतुर्थ सर्ग में श्लोक, वानवासिका, मात्रासमक, उपचित्रा, चित्रा, पादाकुलक, वदनक, अडिल्ला और पद्धटिका की परिभाषा दी गयी है, जिनके प्रायोगिक उदाहरण पांचवें सर्ग के अन्त तक चलते हैं । छठे सर्ग में कवि ने एकाक्षरी 'श्री' से लेकर ३५ वर्णों के चण्डकाल तक समवृत्तों, आख्यानकी, विपरीत आख्यानकी, पुष्पिताग्रा, उपचित्र, हरिणप्लुता, अपरवक्त्र तथा द्रुतमध्या अर्द्धसमवृत्तों और पदचतुरुर्ध्व, षट्पदी तथा विषमाक्षरा विषमवृत्तों लक्षणों की विस्तृत तालिका दी है । इनके उदाहरण सप्तम सर्ग के अन्त तक चलते हैं । आठवें सर्ग के आरम्भ में आर्या आदि छन्दों का प्रस्तार समझाया गया है । तत्पश्चात् उसके 'नष्ट' तथा 'उद्दिष्ट' नामक भेदों का लक्षण और समवृत्तों के प्रस्तार आदि की विधि का निरूपण है । काव्य के कलेवर में इन्हें उदाहृत करना मानव - कौशल तथा क्षमता से बाहर है । अत: माणिक्यसुन्दर ने उनके सैद्धान्तिक विवेचन से ही सन्तोष किया है । इस प्रकार श्रीधरचरित में काव्य तथा छन्दशास्त्रीय ग्रन्थ ( लक्षणग्रन्थ) का अनूठा समन्वय है । सम्भवतः इस उद्देश्य से रचित यही एकमात्र महाकाव्य है । प्रथम सर्ग की रचना शार्दूलविक्रीडित, स्रग्धरा, आर्या, उपजाति, रथोद्धता तथा अनुष्टुप में हुई है । द्वितीय सर्ग में आर्या, अत्यार्या, गीति, उद्गीति, उपगीति, आर्यागीति, वैतालीय, औपच्छन्दसिक, प्राच्यवृत्ति, वैतालीय चारुहासिनी, औपच्छन्दसिक चारुहासिनी, वैतालीयापरान्तिका, औपच्छन्दसिकापरान्तिका, हरिणी तथा भुजंगप्रयात, ये पंद्रह छन्द प्रयुक्त किये गये हैं । तृतीय सर्ग का मुख्य छंद अपरान्तिका है । अन्तिम दो पद्य क्रमशः उपजाति तथा शार्दूलविक्रीडित छन्द में हैं । चतुर्थ सर्ग में 'मुख्यतः अनुष्टुप् का प्रयोग हुआ है । सर्गान्त के दो पद्य क्रमशः मालिनी तथा शिखरिणी में रचित हैं । पंचम सर्ग में प्रयुक्त १४ छन्दों के नाम इस प्रकार हैंअनुष्टुप्, उपजाति, स्वागता, आर्या (!), वानवासिका, मात्रासमक, उपचित्रा, चित्रा, पादाकुलक, वदनक, अडिल्ला, पद्धटिका, शार्दूलविक्रीडित तथा शिखरिणी । छठे सर्ग की रचना में २४ छन्दों को आधार बनाया गया है। उनके नाम हैं - उक्ता जाति का श्री, स्त्री, नारी, कन्या, शशिवदना, मधु, विद्युन्माला, हलमुखी, शुद्धविराट्, रुक्मवती, मत्ता, एकरूप, दोधक, ग्यारह अक्षरी श्री, भद्रिका, इन्द्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, संकर ५२. वृत्तरत्नाकर, भारद्वाज पुस्तकालय, लाहौर, १६३७, १.६-११, श्रीधरचरित, १.२१ 1 ५३. वृत्तरत्नाकर में अडिल्ला तथा पद्धटिका छन्द नहीं हैं । ३८६
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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