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________________ जैन संस्कृत महाकाव्य लक्षणों का यथावत् निर्वाह करना न सम्भव है, न वांछनीय । शास्त्रविहित तत्त्वों में से कुछ के अभाव में, कोई महाकाव्य महाकाव्य-पद से च्युत नहीं हो जाता । दण्डी ने इस वास्तविकता को बहुत पहले स्वीकार किया था। महाकाव्य की रूढ परम्परा के अनुसार जै. कु. सम्भव का आरम्भ मगलाचरण से हुआ है, जो उसके आदर्शभूत, कालिदास के कुमारसम्भव के समान वस्तुनिर्देशात्मक है। ऋषभचरित का जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, आदिपुराण, त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित आदि जैन स्रोतों के अतिरिक्त ब्राह्मणपुराणों, विशेषतः भागवतपुराण, में सविस्तार निरूपण किया गया है । भारतीय समाज की वैदिक तथा श्रमण दोनों धाराओं में मान्य होने के कारण जैनकुमारसम्भव के कथानक को न्यायपूर्वक 'प्रख्यात' (इतिहासकथोद्भूत) माना जा सकता है। विश्वनाथ ने देवता अथवा धीरोदात्तत्वादि गुणों से सम्पन्न सद्वंश क्षत्रिय को महाकाव्य का नायक माना है। ऋषभदेव महान् इक्ष्वाकुकुल के वंशज हैं तथा उनमें वे समग्र विशेषताएं निहित हैं, जो धीरोदात्त नायक में अपेक्षित हैं। रस की दृष्टि से जै. कु. सम्भव की विचित्र स्थिति है । ऋषभदेव के विवाह तथा भरत के जन्म से सम्बन्धित होने के कारण इसमें शृंगार की प्रमुखता अपेक्षित थी, परन्तु जयशेखर ने ऋषभ को मुक्तिकामी वीतराग के रूप में प्रस्तुत किया है जिससे उसका काव्य शृंगार की प्रगाढता से वंचित हो गया है । शान्तरस भी सूक्ष्म संकेतों के अतिरिक्त अंगी रस के रूप में परिपक्व नहीं हो सका है । फलतः जै.कु. सम्भव में कोई भी रस इतना उद्दाम अथवा पुष्ट नहीं है कि उसे प्रधान रस के पद पर आसीन किया जा सके । सामान्यतः श्रृंगार को जै. कु. सम्भव का अभिलषित अंगी रस मानने से परम्परा का निर्वाह हो सकता है। पुरुषार्थचतुष्टय में से जैनकुमारसम्भव का उद्देश्य एक दृष्टि से धर्मसिद्धि है और दूसरी दृष्टि से अर्थ की साधना । आदिदेव के चरित के माध्यम से जैन धर्म के गौरव का निरूपण करना कवि का परोक्ष प्रयोजन है। जै. कु. सम्भव के परिवेश में अर्थसिद्धि का तात्पर्य लौकिक अभ्युदय है। चक्रवर्ती पुत्र की प्राप्ति से पारिवारिक एवं राष्ट्रीय जीवन के उत्थान के आदर्श से जै. कु. सम्भव सतत अनुप्राणित है । काव्य का शीर्षक इसके अभीष्ट प्रतिपाद्य पर आधारित है, यद्यपि वह वर्तमान वर्णित विषय पर पूर्णतया घटित नहीं होता । सुमंगला के गर्भाधान को कुमार के जन्म का पूर्वाभास मानने से सम्भवतः इस कठिनाई का निराकरण हो सकता है। अष्टम सर्ग के नाम ‘चतुर्दशस्वप्नावधारण' से द्योतित है कि सर्गों के नामकरण में भी कवि को परम्परागत नियम मान्य था । जयशेखर ने छन्दों के विधान में शास्त्र का यथावत् पालन किया है । काव्य में विवाह, रात्रि, चन्द्रोदय, प्रभात, सूर्योदय, मध्याह्न आदि ३. न्यूनमप्यत्र यः कश्चिदंगैः काव्यं न दुष्यति ।-काव्यादर्श, १/२०
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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