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________________ जैनकुमारसम्भव : जयशेखरसूरि २१ के कल्पनापूर्ण वर्णन इसकी कथावस्तु को समृद्ध बनाते हैं । इसकी भाषा में महाकाव्योचित प्रौढता तथा परिष्कार और शैली में काम्य भव्यता है । जैनकुमारसम्भव में युग जीवन, विशेषकर वैवाहिक परम्पराओं का विस्तृत चित्रण कवि के सामयिक बोध तथा संवेदनशीलता का द्योतक है । ये विशेषताएं जै. कु. सम्भव के महाकाव्यत्व की प्रतिष्ठा के आधार हैं । जैनकुमारसम्भव का स्वरूप जयशेखर ने पुराणवर्णित ऋषभचरित को महाकाव्य का विषय बनाया है । जै. कु. सम्भव में देवों का काव्य के पात्रों से इतना घनिष्ठ सम्बन्ध है कि इसे निस्संकोच देववेष्टित कहा जा सकता है । सूत्रधार की भांति जो पात्र काव्य के कार्यकलाप का आद्यन्त संचालन करता है, वह देवाधिपति इन्द्र है । किन्तु मर्त्य और अमर्त्य के इस मिलन के कारण जै. कु. सम्भव को पौराणिक काव्य मानना उचित नहीं है | काव्य के स्वरूप का निर्धारण कथा - परिवेश के आधार पर नहीं अपितु उसके प्रस्तुतीकरण, काव्य की भाषा-शैली तथा उसके वातावरण की समग्रता के आधार पर होना चाहिये । इस दृष्टि से देखने पर जै. कु. सम्भव के शास्त्रीय शैली की रचना होने में सन्देह नहीं रहता । इसकी पुराणगृहीत कथावस्तु को परिमार्जित तथा गरिमापूर्ण भाषा-शैली में वर्णित किया गया है, जो कवि की बहुश्रुतता को बिम्बित करती है । पौराणिक काव्यों की तरह जै. कु. सम्भव में प्रत्यक्षतः धर्मप्रचार का आग्रह नहीं है । यह अवान्तर कथाओं तथा पूर्वभवों के पौराणिक वर्णनों से भी मुक्त है । इसके विपरीत शास्त्रीय शैली के महाकाव्य की प्रकृति के अनुरूप जै. कु. सम्भव में वर्ण्य विषय की अपेक्षा अभिव्यंजना शैली अधिक महत्त्वपूर्ण है । स्वल्प कथानक तथा काव्य के आकार में अन्तर इसी प्रवृत्ति का परिणाम है । कविपरिचय तथा रचनाकाल जैनकुमारसम्भव से इसके यशस्वी प्रणेता जयशेखरसूरि के जीवनवृत्त अथवा काव्य के रचनाकाल का कोई विश्वस्त सूत्र हस्तगत नहीं होता । काव्य में प्रान्तप्रशस्ति के अभाव का यह दुःखद परिणाम है । जयशेखर पट्टधर नहीं थे, अतः पट्टावलियों में भी उनका विवरण प्राप्त नहीं है । जं. कु. सम्भव के प्रत्येक सर्ग की टीका के अन्त में टीकाकार धर्मशेखर ने जयशेखर की साहित्यिक उपलब्धियों का जो संकेत किया है. उससे विदित होता है कि जयशेखर काव्यसरिता के 'उद्गमस्थल' तथा 'कविघटा' के मुकुट थे । जैनकुमारसम्भव के रचयिता की कवित्वशक्ति तथा काव्यकौशल को ४. सूरि : श्रीजयशेखरः कविघटा कोटी रही रच्छविः - धम्मलादिमहाकवित्वकलना कल्लोलिनीसानुमान् ।
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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