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________________ हम्मीर महाकाव्य : नयचन्द्रसूरि २८१ वाग्भट अविचल निष्ठा से राजा का मार्गदर्शन करता है । उसकी मन्त्रणा दूरदर्शिता से इतनी परिपूर्ण थी कि उसका उल्लंघन करने का मूल्य वीरनारायण को अपने प्राणों से चुकाना पड़ता है । स्वाभिमान तथा जागरूकता उसके चरित्र की उल्लेखनीय विशेषताएँ हैं । वह अपने परामर्श की अवहेला को अपना अपमान समझता है और वीरनारायण के दुर्व्यवहार" से व्यथित होकर उसका राज्य ही छोड़ देता है । अपनी सतर्कता के कारण ही वह मालवराज के दुराशय को विफल कर देता है और महज़ अपनी नीति से रणथम्भोर के दुर्ग पर कब्ज़ा कर लेता है । वाग्भट पराक्रमी सैनिक भी है। उसने अनेक शत्रुओं को पददलित करके अपनी वीरता की प्रतिष्ठा की । देश की सीमाओं पर स्थायी रूप से सेनाएँ रखना उसकी दूरदर्शितापूर्ण नीति थी५४ । भोजदेव हम्मीर का दासीजात भाई है । अन्धे धर्मसिंह के षड्यन्त्र के कारण प्रधानामात्य के पद से च्युत होकर भी वह पूर्ववत् स्वामिभक्ति से राजा की सेवा करता है | धर्मसिंह के आयशुद्धि माँगने पर वह उसे सर्वस्व सौंप देता है, किन्तु आभिजात्य के कारण स्वामिभक्ति से विचलित नहीं होता" । पर जब उसे काक कह कर अपमानित किया जाता है तो वह तीर्थयात्रा के बहाने अलाउद्दीन से जा मिलता है । वह बदला लेने के लिये, उसे हम्मीर पर आक्रमण करने को प्रेरित करता है और उसे विजय प्राप्ति का रहस्य भी बता देता है । उसके इस आचरण को कृतघ्नता अथवा स्वामिद्रोह कहा जा सकता है, किन्तु धर्मसिंह और हम्मीर ने द्वेष एवं लोभ के वशीभूत होकर उसका जो अपमान किया था, यह उसका स्वाभाविक परिणाम था । अन्यथा भोजदेव शिष्टाचार सम्पन्न व्यक्ति है । हम्मीर के प्रति उसके व्यवहार में अद्भुत संतुलन एवं शिष्टता है । पर जब वह अलाउद्दीन के सामने बच्चे की तरह विलाप करता है और कायर के समान भूमि पर लोट कर अपनी करुणावस्था प्रकट करता है तब उसका सन्तुलन और क्षत्रियोचित शौर्य दोनों काफूर हो जाते हैं । धर्मसिंह के व्यक्तित्व में प्रमाद तथा कूटनीति का विचित्र सम्मिश्रण है । जिस हम्मीर ने उस पर भीमसिंह के वध का दायित्व थोंप कर उसे अन्धा और नपुंसक बनवाया था, उसे भी वह अपनी कूटनीति के जाल में फांस लेता है, जिससे ५२. अकार्यं वा यदि वा कार्यं यन्मे रोचिष्यतेतमाम् । करिष्ये तदहं स्वैरं चिन्तयाऽत्र कृतं तव ॥ वही, ४.६६ ५३. वही, ४.१२० ५४. वही, ४.१२६ ५५. निरीहचित्तवत् तस्य सर्वस्वमपि दत्तवान् । वही, ६.१७७
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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