SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 247
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २३२ जैन संस्कृत महाकाव्य स्वयं समस्याकार द्वारा भी किया गया हो तो भी यह समस्यापूर्ति में बाधक नहीं है । समस्यापूर्ति की सार्थकता इस बात में है कि समस्यारूप में गृहीत चरण का प्रसंग में अभीष्ट भिन्न अर्थ किया जाए। मेघविजय इस कला के पारंपत आचार्य हैं । समस्यापूर्ति में उनकी सिद्धहस्तता का अनुमान इसी से किया जा सकता है कि उन्होंने माघ के अतिरिक्त मेघदूत, नैषध तथा किरात की समस्यापूर्ति के रूप में स्वतंत्र काव्यों की स्चना की थी। । भाषा का चतुर शिल्पी होने के कारण मेघविजय ने माघकाव्य से गृहीत समस्याओं का बहुधा सर्वथा अज्ञात तथा चमत्कारजनक अर्थ किया है । वांछित नवीन अर्थ निकालने के लिये कवि को आषा के साथ मनमाना खिलवाड़ करना पड़ा है। कहीं उसने मूल पाठ के विसर्म बथा अनुस्वार का लोप किया है, कहीं विभक्तिविपर्यय, बचनभेद तथा क्रियाभेद कर दिया है। सन्धिभेद तथा शब्दस्थानभेद का भी उसने खुल कर आश्रय लिया है । किन्तु कवि ने अभीष्ट अर्थ की प्राप्ति अधिकतर मवीन पदच्छेद के द्वास की है । अभिनव पदच्छेद के द्वारा यह ऐसे विचित्र अर्थ निकालने में सफल हुमा है, जिनकी कल्पना माघ ने भी नहीं की होगी। इसमें उसे पूर्व चरण की पदावली से बहुत सहायता मिली है। मेघविजय ने अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए माष की भाषा को किस निर्ममता से तोड़ा-मरोड़ा है तथा उससे किसकिस अर्थ का सक्न किया है, इसका आभास निम्नांकित तालिका से मिल सकता है। साय मेघविजय १. क्रमादमुं नारद इत्यबोधि सः (१.३) क्रमाद् अमुन्नारद इत्यबोधिसः । १.३-४ [अमुद् अहर्षः तस्य नार: विक्षेप: ध्वंसः हर्षः तं दत्ते इति । इत्यबोधिसः इत्या प्राप्त व्या बोधिसा ज्ञानलक्ष्मीर्यस्य सः] २. धराधरेन्द्रं व्रततीलतीरिव (१.५) बिभ्रतं धरा धरेन्द्रं व्रततीततीरिव ।१.६ (यथा व्रततीतती: बिभ्रतं धरेन्द्रं प्राप्य गुणा धिकापि धरा अतिदुर्गमा रसरहिता भवति) ३. पुरातनं त्वा पुरुषं पुराविदः (१.३३) पुरातनं त्वां पुरुषं पुराविदः । १.३४ ['यत्र जभन्तमुज्जगुः' यत्र पुराणपुरुषं कृष्णम् आं लक्ष्मी भजन्तं-जभन्तं-पुराविदः उज्जगुः] ४. विलंध्य लंकां निकषा हनिष्यति तमोऽवधेविलंध्यलंकां निकषा हनिष्यति । ६१.६८) १.७१ [वासुदेवः चिच्छक्ति विधृत्य अवधेविलंधि निस्सीमं तमः पापं राहुं वा हनिष्यति ।
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy