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________________ देवानन्दमहाकाव्य : मेघविजयगणि २३॥ चरणों की रचना कवि ने स्वयं की है, किन्तु कहीं-कहीं दो अथवा तीन चरणों को लेकर भी समस्यापूर्ति की गयी है । कुछ पद्यों के विभिन्न चरणों को लेकर अलग-अलग श्लोक रचे गये हैं। माघ के ३३४८ के . चारों पादों के आधार पर मेघविजय ने चार स्वतन्त्र पद्य बनाये हैं (३. ५१-५४)। कभी-कभी एक समस्या-पाद की पूर्ति चार पद्यों में की गयी है। माघ के ३।६६ के तृतीय चरण 'प्रायेण निष्कामति चक्रपाणी' का कवि ने चार पद्यों में प्रयोग किया है (३।११७-१२०) । अन्यत्र एक समस्या दो अथवा तीन पद्यों का विषय बनी है। 'नेष्टं पुरो द्वारवतीत्वमासीत्' (माघ, ३१६६, चतुर्थ पाद) पारेजलं नीरनिधेरपश्यन् (माघ, ३७०, प्रथम), 'क्षिप्ता इवेन्दोः सरुचोऽधितीरं [वेल] (माघ, ३७३, तृतीय), 'उदन्वतः स्वेदलवान् ममार्ज' (माघ,३७६, द्वितीय), 'तस्यानुवेलं व्रजतोऽति (घि) वेलं (वही, तृतीय), 'क्वचित् कपिशयन्ति चामीकराः' (माघ, ४।२४,चतुर्थ) के आधार पर मेघविजय ने क्रमशः ३।१२१-१२२, ३।१२३-१२४, ३।१३८-१३६, ३।१६५-१६६, ३।१६७-१६८ तथा ४।३२-३३ की रचना की है। 'उत्संगशय्याशयमम्बुराशिः (माघ, ३७८, द्वितीय) मेघविजय के तीन पद्यों (३।१५६-१६१) का आधार बना है। देवानन्द के कर्ता ने दो समस्या-पादों को एक ही पद्य में पादयमक के रूप में दो बार प्रयोग करके भी अपने रचनाकौशल का चमत्कार दिखाया है । 'अक्षमिष्ट मधुवासरसारम्', 'प्रभावनीकेतनवैजयन्ती', 'परितस्तार रवेरसत्यवश्यम् , 'रुचिरं कमनीयत रागमिता' को क्रमशः ६/७६, ८० ८१, ८२, के पूर्वार्ध तथा अपराध में प्रयुक्त किया गया है, यद्यपि आधारभूत समस्या-पादों की भाँति दोनों भागों में, इनके अर्थ में, आकाश-पाताल का अन्तर है। समस्यापूर्ति में पूरणीय चरण के शब्दों को न बदल कर अर्थ की पूर्ति करनी होती है। माघ तथा मेघविजय में कहीं-कहीं पाठभेद मिलता है, किन्तु यह परिवर्तन समस्याकार ने अपने प्रयोजन की सिद्धि के लिए किया है अथवा यह माघ का ही पाठान्तर है, इसका निश्चय माघ के विशेषज्ञ ही कर सकते हैं । यदि यह परिवर्तन १०. उदाहरणार्थ - देवानन्द २.२३. तु. च., २.४० तु. च., २.८३, द्वि. तृ., २.११२, प्र.द्वि., ४.४५. द्वि. च., ३.७२, द्वि. च., . ११. उदाहरणार्थ- देवानन्द, २.१२. प्र. द्वि. च., ४.४४, प्र. द्वि. च. १२. उदाहरणार्थ- माध मेघविजय तडितां गणैरिव (१.८) तडितां गुणैरिव (१.८) उदप्रदशनांशुभिः (२.२१) उदंदशनांशुभिः (२.२१) . स श्रुतश्रवसः सुतः (२.४१) स सुतश्रवसः सुतः (२.४२) सर्गः स्वार्थ समीहते (२.६५) सनस्वार्थ समीहते (२.६८) यमस्वसुश्चित्र इवोदभारः (३.११) .............इवोदवाहः (३.११)
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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