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________________ आलोच्य महाकाव्यों की प्रवृत्तियाँ तथा विशेषताएं है। यह स्पष्टतः अपभ्रंश काव्यों के प्रभाव का फल था। इनमें रूप-परिवर्तन, कन्याहरण, पातालगमन आदि लोककथाओं की रूढ़ियों को पर्याप्त स्थान मिला है । पौराणिक काव्यों के मंच के अधिकतर अभिनेता देवता हैं । वास्तव में इन काव्यों का संसार अतिशयों, अलौकिकताओं तथा असम्भावनाओं का अविश्वसनीय संसार है । जैन पौराणिक महाकाव्य मूलतः धार्मिक रचनाएं हैं। उनका उद्देश्य कथा के व्याज से धर्म का उपदेश देना है। इसलिये इनमें कथारस गौण और धर्मभाव प्रधान है। जगत् की नश्वरता, भोगों की दुःखमयता, वैराग्यभाव, आत्मज्ञान तथा सदाचार आदि के आदर्शों का निरूपण करना उन काव्यों का मुख्य विषय है । आलोच्य युग में दो प्रकार के ऐतिहासिक महाकाव्यों की रचना हुई है। हम्मीरमहाकाव्य, कुमारपालचरित तथा वस्तुपालचरित इतिहास के सुप्रसिद्ध शासकों तथा नीतिकुशल मन्त्रियों से सम्बन्धित हैं, जो अपने शौर्य, उत्सर्ग तथा कूटनीतिक निपुणता के कारण राष्ट्र के आदर के पात्र हैं। जहां हम्मीर-महाकाव्य तथा वस्तुपालचरित का इतिहास-पक्ष प्रामाणिक है और नयचन्द्र अपनी अन्वेषणवृत्ति यथा तटस्थता के कारण आधुनिक इतिहासकार के बहुत निकट आ जाते हैं, वहां कुमारपालचरित में कवि के धार्मिक आवेश तथा ऐतिहासिक विवेक के अभाव ने इतिहास पर हरताल पोत दी है। दूसरी कोटि के ऐतिहासिक महाकाव्यों में जैन धर्म के तपस्वी तथा निःस्पृह आचार्यों का जीवनचरित निबद्ध है। तथ्यात्मक निरूपण के कारण ये काव्य सम्बन्धित आचार्यों के धार्मिक इतिहास की जानकारी के लिये अत्यन्त विश्वसनीय तथा उपयोगी हैं। इन दोनों श्रेणियों के महाकाव्यों में से कुछ, काव्य की दृष्टि से भी, उच्च पद पर प्रतिष्ठित हैं।" इस युग के शास्त्रकाव्यों का आदर्श, भट्टिकाव्य की तरह व्याकरण के नियमों को उदाहृत करना नहीं है । सम्बन्धित दो महाकाव्यों में से एक में समस्या पूर्ति का चमत्कार है, दूसरे में श्लेष के द्वारा सात महापुरुषों का जीवन ग्रथित करने का उद्योग है । दोनों भाषा के उत्पीडन तथा बौद्धिक व्यायाम के प्रतीक हैं। ___ काव्यशैली के इस चतुर्विध विभाजन के बावजूद जैन महाकाव्यों में उपर्युक्त शैलियों का सम्मिश्रण दिखाई देता है । कतिपय काव्यों को शैली-विशेष की प्रधानता के कारण उक्त वर्गों में स्थान दिया गया है। उदाहरणार्थ, माणिक्यचन्द्रसूरि का श्रीधरचरित छन्दशास्त्र के सामान्य विश्लेषण तथा विभिन्न ज्ञाताज्ञात छन्दों को उदाहृत करने के कारण शास्त्रकाव्य की पदवी का और प्रौढ़ भाषा तथा अभिव्यंजना शैली की प्रबलता के कारण शास्त्रीय काव्य के पद का अधिकारी है, परन्तु अन्तिम ७. स्वादुंकारमिमाः पिबन्तु च रसास्वादेषु ये सावराः । -हम्मीरमहाकाव्य, १४.४५.
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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