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________________ जैन संस्कृत महाकाव्य दो सर्गों के सिन्धुप्रबाह ने उसके अन्य गुणों को इस प्रकार मज्जित कर दिया है कि उसे पौराणिक काव्यों में सम्मिलित करने को विवश होना पड़ता है। सम्राट अकबर तथा हीरविजयसूरि के धार्मिक तथा आध्यात्मिक सम्बन्धों और आचार्य के साधुजीवन का प्रामाणिक स्रोत होने के नाते हीरसौभाग्य को ऐतिहासिक काव्य माना जा सकता था पर यह नैषधचरित की परम्परा का अन्तिम समर्थ उत्तराधिकारी तथा विविध काव्यगुणों से भूषित है। अतः इसका विवेचन शास्त्रीय काव्यों में किया गया है। जैन महाकाव्यकारों ने नायक से सम्बन्धित शास्त्रीय विधान का आंशिक पालन किया है । देवों तथा क्षत्रिय कुल के महापुरुषों को नायक बनाना शास्त्रीय बन्धन की स्वीकृति है। परन्तु जैन कवियों ने वणिक्वंशोत्पन्न वैराग्यशील तपस्वियों को नायक के गौरवशाली पद पर आसीन कर महाकाव्य-परम्परा में नवीनता का सूत्रपात किया है और उसे देवी-देवताओं के वायवीय वातावरण से उतार कर यथार्थ के धरातल पर प्रतिष्ठित करने का प्रयत्न किया है, यद्यपि उनके इन काव्यों में भी अलौकिक तथा अद्भुत प्रसंगों की कमी नहीं है । हीरसौभाग्य, सोमसौभाग्य, सुमतिसम्भव आदि के पूज्य नायक वैश्यवंश की विभूतियां हैं। व रघुवंश आदि की भांति कतिपय जैन महाकाव्य ऐसे भी हैं, जिनमें एकाधिक पात्र नायक की पदवी पर आरूढ़ हैं, यद्यपि वे सदैव एक वंश के विभूषण नहीं हैं (एकवंशभवाः) । भरत-बाहुबलि-महाकाव्य में बाहुबलि को, काव्य के कलेवर के रोम-रोम में व्याप्त होने तथा उसकी उदात्त परिणति के कारण किसी भी प्रकार नायक के पद से च्युत नहीं किया जा सकता । व्यक्तित्व की गरिमा तथा पवित्रता के कारण हीरविजय भी अपने शिष्य विजयसेन के समान, विजयप्रशस्ति के निर्विवाद नायक हैं। काव्यमण्डन तथा सप्तसन्धान में नायकों की संख्या, क्रमशः पांच तथा सात तक पहुंच गयी है । सप्तसंधान के सातों नायक सात विभिन्न कुलों के वंशज हैं। यह संयोग है कि वे सभी जाति से क्षत्रिय हैं। जैन महाकाव्यों के अधिकतर नायकों में वे समूचे शास्त्रविहित गुण हैं, जिनके कारण नायक को धीरोदात्त माना जाता है। पर ऐसे काव्य भी कम नहीं हैं जिनके नायक अपनी निर्लिप्तता तथा स्थितप्रज्ञा के कारण 'धीरप्रशान्त' श्रेणी में आते हैं। नेमिनाथमहाकाव्य, सोमसौभाग्य तथा जम्बूस्वामिचरित में नायकों की धीर प्रशान्तता की पावनता है । रत्नचन्द्रकृत प्रद्युम्नचरित के प्रद्युम्न में धीरोद्धत नायक की विशेषताओं का बाहुल्य है। उधर पद्मनाभ के यशोधरचरित का नायक आत्म८. सद्वंशः क्षत्रियो वापि धीरोदात्तगुणान्वितः । एकवंशभवा भूपाः कुलजा बहवोऽपि वा ॥-साहित्यदर्पण, ६.३१६
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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