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________________ बालोच्य महाकाव्यों की प्रवृत्तियाँ तथा विशेषताएँ जैन महाकाव्य-प्रणेताओं ने मंगलाचरण के शास्त्रीय विधान को यथावत् स्वीकार किया है। जैन महाकाव्यों के मंगलाचरण अधिकतर नमस्कारात्मक अथवा आशीर्वादात्मक हैं। जयशेखर, पुण्यकुशल आदि ने सीधा कथावस्तु का प्रारम्भ कर वस्तुनिर्देश-मंगलाचरण की परम्परा का पालन किया है। साहित्यशास्त्र के नियम के अतिरिक्त उनके सामने कालिदास (कुमारसम्भव), भारवि आदि प्राचीन महाकवियों के आदर्श थे। जैन महाकाव्यों के मंगलाचरणों की विशेषता यह है कि वे सदैव एक पद्य तक सीमित नहीं हैं, न उनमें केवल अभीष्ट देव की स्तुति की रूढ़ि को स्वीकारा गया है। कतिपय महाकाव्यों में, एकाधिक पद्यों में, जिनेश्वर के अतिरिक्त, सिद्धों, गणधरों, वाग्देवी अथवा रत्नत्रय की स्तुति/वन्दना पायी जाती है। अन्य पक्षों की भांति हम्मीरमहाकाव्य का मंगलाचरण भी क्रान्तिकारी है। इसके सात पद्यों के मंगलाचरण में 'परम ज्योति' की उपासना, श्लिष्ट विधि से ऋषभ, पार्श्व, महावीर, शान्तिनाथ, नेमिनाथ के साथ-साथ क्रमशः ब्रह्मा, पुरुषोत्तम, शंकर, भास्कर, शशिशेखर महेश तथा सरस्वती की आशीर्वाद-प्राप्ति के लिये उदात्त भावपूर्ण स्तुति की गयी है। यह साम्प्रदायिक आग्रहहीनता नयचन्द्र की उदारता तथा व्यापक दर्शन का संकेत देती है। आकार की दष्टि से दिग्विजय-महाकाव्य का मंगलाचरण सब सीमाओं को पार कर गया है। इसके पूरे चौबीस दीर्घ छन्दों में क्रमशः चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति है। आलोच्य युग के दो महाकाव्य ऐसे भी हैं, जिनके लेखकों ने प्रत्येक सर्ग को मंगलाचरण की दृष्टि से स्वतन्त्र इकाई माना है। राजमल्ल के जम्बूस्वामिचरित में यह और अनूठापन है कि इसके सभी बारह सर्ग दो-दो जिनेश्वरों की स्तुति से आरम्भ होते हैं। इस प्रकार इसमें सभी तीर्थंकरों के प्रति मंगलाचरण के रूप में श्रद्धा व्यक्त की गयी है। जैनेतर महाकाव्यों में इस प्रकार के विस्तृत तथा वैविध्यपूर्ण मंगलाचरण अकल्पनीय हैं । महाकाव्य के इस अति स्थूल तत्त्व में जैन कवियों ने मूल को स्वीकारते हुए भी इतना परिवर्तन किया है कि वे आचार्य हेमचन्द्र के नियम से भी बहुत दूर चले गये हैं। नेमिनाथ महाकाव्य आलोच्य युग की एक मात्र ऐसी रचना है, जिसके मंगलाचरण में स्वयं काव्यनायक नेमिप्रभु की वन्दना से पुण्यार्जन की बलवती स्पृहा है ।' परिभाषा के अनुसार जैन महाकाव्यों का कथानक प्रख्यात अथवा सदाश्रित ४. आदौ नमस्क्रियाशीर्वा वस्तुनिर्देश एव वा।-साहित्यदर्पण, ६.३१६ आशीर्नमस्कारवस्तुनिर्देशोपक्रमत्वम् ।-काव्यानुशासन, ८.७ (पृ.४५६) ५. वन्दे तन्नेमिनाथस्य पदद्वन्द्वं श्रियां पदम् । नायरसेवि देवानां यन् भृगरिव पंकजम् ॥–नेमिनाथ महाकाव्य, १.१.
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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