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________________ जैन संस्कृत महाकाव्य को पंचव्रत, स्याद्वाद, जीवाजीव, कर्म आदि सिद्धान्तों के वाहन के रूप में प्रयुक्त किया है । रंजन तथा उपयोगिता का यह गठबन्धन वहीं तक अत्याज्य है जहां तक यह काव्य की आत्मा को अभिभूत अथवा विकृत नहीं करता । जैनेतर काव्यशास्त्रियों ने भी काव्य में धार्मिक तथा नैतिक उपदेश को सर्वथा नकारा नहीं है पर इस विषय में उनके दृष्टिकोण का सच्चा प्रतिनिधित्व विष्णुधर्मोत्तरपुराण की यह उक्ति करती है धर्मार्थकाममोक्षाणां शास्त्रं स्यादुपदेशकम् । तदेव काव्यमित्युक्तं चोपदेशं विना कृतम् ॥ १५-१-२ उनके लिये शास्त्र तथा काव्य का विभाजक तत्त्व 'धर्मोपदेश' है । जिस काव्य को तत्त्वज्ञान का क्षेत्र बना दिया जाता है, वह उनकी दृष्टि में शास्त्र के निकट है और उसे काव्यमय शास्त्र कहना अधिक उपयुक्त होगा। जैन कवियों के आध्यात्मिक चिन्तन तथा संस्कारगत परिवेश में इस तात्त्विक अन्तर की अर्थवत्ता अधिक नहीं है। __ काव्य की पश्चाद्वर्ती समूची गतिविधियों का स्रोत जैन पुराण हैं । कतिपय पुराणकारों ने अपने त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित जैसे विराट्काय ग्रन्थों को महाकाव्य की संज्ञा देकर प्रकारान्तर से, उनके आकर-स्वरूप को रेखांकित किया है। जैन कवियों ने अपनी रचनाओं से यह उदाहृत तथा प्रमाणित किया है कि धर्मभावना साहित्य के लिए ही नहीं, समाज के लिये भी स्फूति तथा प्रेरणा की अक्षय संजीवनी है। परवर्ती कवियों के लिये जैन पुराण आदर्श के दीपस्तम्भ हैं। जैन कवियों ने मान्य शलाकापुरुषों अथवा अन्य महच्चरित के आधार पर, नाना प्रकार के महाकाव्यों की विशाल राशि का निर्माण किया है, जिनमें से कुछ अपने काव्यगुणों तथा अन्य विशिष्टताओं के कारण समग्र साहित्य के गौरव हैं। महाकाव्य के तथाकथित शुष्क युग में जैन कवियों ने मूल्यवान महाकाव्यों के द्वारा काव्य-परम्परा को न केवल जारी रखा है बल्कि उसे समृद्ध भी बनाया है। जनेतर महाकाव्य के पतन का युग जैन महाकाव्य के उत्थान का काल है। पहले कहा गया है कि जैन कवियों ने पूर्ववर्ती महाकाव्य-परम्परा में क्रान्तिकारी परिवर्तन नहीं किये हैं। आपाततः जैनेतर तथा जैन कवियों द्वारा प्रणीत महाकाव्यों में आन्तरिक भेद दिखाई भी नहीं देता। परन्तु जैन मतावलम्बी कवियों ने, जो लगभग शत प्रतिशत दीक्षित साधु थे, अपने उद्देश्यों तथा आवश्यकताओं के अनुरूप, महाकाव्य-परम्परा में कुछ उल्लेखनीय परिवर्तन किये हैं तथा उनकी कुछ निजी प्रवृत्तियाँ हैं जिनका विश्लेषण जैन महाकाव्यों के स्वरूप के सम्यक् बोध के लिये आवश्यक है।
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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