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________________ हीरसौभाग्य : देवविमलगणि १२ हुए आर्हत धर्म की सर्वोत्कृष्टता का युक्तिपूर्ण प्रतिपादन किया । अकबर ने उन्हें बहुमूल्य राजसी उपहार देने का प्रस्ताव किया परन्तु आचार्य ने उन्हें यह कहकर शिष्टतापूर्वक अस्वीकार कर दिया कि जैन साधु के लिये शारीरिक सुख भोग की वस्तु लेना नितान्त वर्जित है । अकबर के अधिक आग्रह करने पर उस तपस्वी ने सम्राट् से राज्य के समस्त बन्दियों को मुक्त करने तथा पर्युषण पर्व के आठ दिन, समूचे राज्य में जीववध पर प्रतिबन्ध लगाने का अनुरोध किया । सम्राट् ने इसे सहर्ष स्वीकार किया तथा इस आशय छह फरमान हीरसूरि को दिये । आचार्य की धार्मिक उपलब्धियों तथा सच्चरित्रता के उपलक्ष्य में सम्राट् ने उन्हें 'जगद्गुरु': की उपाधि से विभूषित किया। कालान्तर में अकबर ने अमानुषिक जजिया कर भी समाप्त कर दिया और हीरविजय को शत्रुंजय का स्वामित्व प्रदान किया । पन्द्रहवें सर्ग में हीरविजय संघ के साथ, शत्रुंजय की यात्रा के लिये प्रस्थान करते हैं । इस सर्ग के अधिकांश में तथा अगले सर्ग में शत्रु जय का माहात्म्य वर्णित है । सतरहवें सर्ग में, उन्नतपुर में हीरविजय के देहावसान का वर्णन है । जिस आम्र वृक्ष के free उनकी अन्त्येष्टि की गयी थी, वह रातों-रात फलों से भर गया है । विजयसेन के करुण विलाप के साथ काव्य समाप्त हो जाता है । पहले कहा गया है, देवविमल का उद्देश्य ऐसे काव्य की रचना करना था, जिसमें सुप्रतिष्ठित महाकाव्य - परम्परा का, उसकी समस्त विशेषताओं और रुढ़ियों के साथ, समाहार किया जा सके । इस उद्देश्य ने जहां उसे अत्यन्त विस्तृत फलक दिया है वहां काव्य को सन्तुलित रखने की उसकी क्षमता का अपहरण भी किया है । इसके अतिरिक्त वह श्रीहर्ष के नैषधचरित से इतना प्रभावित तथा मोहित है कि उसने नैषध का समानान्तर प्रस्तुत करने में ही अपनी प्रतिभा तथा काव्यशक्ति की सार्थकता मानी है । काव्य का मूल कथानक तथा उससे सम्बन्धित प्रसंग यद्यपि अल्प नहीं हैं, किन्तु देवविमल की दृष्टि में प्रबन्धात्मकता का निर्वाह करना महत्त्वपूर्ण प्रतीत नहीं होता । पूर्व प्रचलित रूढ़ियों का समावेश करने की आतुरता के कारण उसने हीरसौभाग्य में नारी - सौन्दर्य के नख - शिख चित्रण, पौर ललनाओं का सम्भ्रम, सैन्यप्रयाण, दिग्विजय, अश्वचेष्टा आदि कतिपय ऐसे वर्णन भी चिपका दिये हैं, जो उसकी निवृत्तिवादी प्रकृति से मेल नहीं खाते । द्वितीय सर्ग के अपरार्द्ध में वर्णित भरतचरित, चतुर्थ सर्ग की पूर्वाचार्य - परम्परा प्रकृति वर्णन वाले सातवें सर्ग तथा दसवें सर्ग के पूर्वार्द्ध का मूल कथानक से चेतन सम्बन्ध नहीं है । आबू तथा शत्रुंजय के वर्णन एवं माहात्म्य वाले सगँ ( १२,१५,१६ ) भी कथा वस्तु के साथ अतीव सूक्ष्म तन्तु से बंधे हुए हैं । वस्तुतः यही तीन सर्ग ऐसे हैं जो काव्य की गरिमा आहत करते हैं, यद्यपि धार्मिक दृष्टि से उनका महत्त्व निर्विवाद है
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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