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________________ जैन संस्कृत महाकाव्य १२८ से उद्विग्न होकर, कात्तिक कृष्णा द्वितीया सम्वत् १५६६ को विजयदान सूरि से, पाटण में, प्रव्रज्या ग्रहण करता है । छठे सर्ग में शासनदेवता के आदेश से विजयदान उसे सम्बत् १६१०, पोष शुक्ला पंचमी को, शिवपुरी (सिरोही) में सूरि के गौरवपूर्ण पद पर प्रतिष्ठित करते हैं । हीरक की भांति प्रिय होने तथा विद्वन्मण्डलियों में उसकी भावी विजय से आश्वस्त होने के कारण उसका नाम हीरविजय रखा गया । उनके सूरि पद के नन्दि-उत्सव का आयोजन यवनराज सेरखान के नीति कुशल मन्त्री, समर्थ भणशाली ने पाटण में किया। विजयदान सूरि अपने नव दीक्षित शिष्य जयसिंह को उन्हें सौंप देते हैं और पृथ्वी पर सर्वत्र व्याप्त अपने यश को देवलोक में पहुंचाने के लिये स्वयं, वटपल्लिका (वडली) में, स्वर्ग सिधार जाते हैं । सातवां तथा आठवां सर्ग क्रमशः वर्षा, शरत्, सूर्यास्त, चन्द्रोदय आदि तथा शासन देवता के अंगों-प्रत्यंगों के विस्तृत वर्णन से परिपूर्ण है । नवें सर्ग में हीर विजय, शासन देवी के आदेश से अपने मेधावी शिष्य जयविमल ( जयसिंह ) को अहमदाबाद में क्रमशः उपाध्याय तथा सूरि पद प्रदान करते हैं, जैसे अग्नि अपना ते दीपक को देती है ( ६. १५) । दसवें सर्ग में मुगल सम्राट् अकबर के समदर्शी तथा निस्पृह साधु के विषय में पूछने पर (१०. ६५-६६ ), उसके सभासद् जैनाचार्य हीरविजय की आध्यात्मिक तथा चारित्रिक उपलब्धियों का विस्तारपूर्वक बखान करते हैं (१०.εε-१३०) । ग्यारहवें सर्ग में, गुजरात के गवर्नर साहिबखान के द्वारा अकबर का निमन्त्रण पाकर हीरविजय यह सोच कर कि सम्राट् के मिलने से धर्म - वृद्धि होगी, फतेहपुर सीकरी को प्रस्थान करते हैं । बारहवें सगं में आबू पर्वत तथा वहां के प्रसिद्ध मन्दिरों का वर्णन है । लम्बा मार्ग तय करने के बाद, तेरहवें सर्ग में, जैनाचार्य सीकरी पहुंचते हैं, जहां उनका भव्य राजसी स्वागत किया गया । फतेहपुर में हीरविजय की प्रथम धर्म गोष्ठी, अकबर के आध्यात्मिक मित्र तथा इस्लाम - दर्शन के प्रकाण्ड पण्डित अब्बुल फ़ज़ल के साथ हुई, जिसमें विद्वान् मन्त्री ने इस्लाम के महत्त्वपूर्ण सिद्धान्तों पर आचार्य से गम्भीर चर्चा की । इस दार्शनिक विचार-विनिमय के पश्चात् अब्बुल फ़ज़ल जैन साधु को अकबर की सभा में ले गया, जैसे सिद्धिदायक मन्त्र इष्टदेव को साधक के पास ले आता है ( १३. १५५) । हीरविजय की कठोर संयमपूर्ण चर्या सुनकर, जिसके कारण वे सुदूर गन्धार बन्दर से सीकरी तक पैदल आये थे, सम्राट् का हृदय श्रद्धा से परिपूर्ण हो गया । चौदहवें सर्ग में हीरविजय की अकबर के साथ धर्म - चर्चा होती है, जिसमें वे सम्राट् को धर्म, गुरु तथा देव के वास्तविक स्वरूप का दिग्दर्शन कराते हैं । अकबर हीरसूरि की निरीहता, सच्चरित्रता तथा करुणा से बहुत प्रभावित हुआ। आगरा में पावस के चार मास व्यतीत करने के पश्चात् हीरविजय की अकबर से दूसरी गोष्ठी हुई, जिसमें आचार्य ने सदसत् की विस्तृत मीमांसा करते
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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