SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 145
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३० जैन संस्कृत महाकाव्य सप्तदश और कवित्व की दृष्टि से भी वे उपेक्षणीय नहीं हैं । अन्तिम तीन सर्गों के प्रतिपाद्य को केवल एक सर्ग में सफलतापूर्वक समेटा जा सकता था किन्तु नैषध सर्ग के दार्शनिक विवेचन से स्पर्धा करने के लिए कवि ने इन तीन सर्गों का पल्लवन किया है पर वह जैन धर्म के विविध व्रतों, क्रियाओं तथा नियमों की तालिका ही दे सका है। नैषध की तरह ही यहाँ प्रबन्धात्मकता का अभाव है और प्रासंगिकप्रासंगिक वर्णनों का बाहुल्य है । संतोष यह है कि देवविमल में समर्थ काव्य प्रतिभा है जिसके कारण उसके सभी वर्णन कवित्व से तरलित हैं । देवविमल को प्राप्त श्रीहर्ष का दाय हीरसौभाग्य की रचना में कवि विराट् अन्तर तथा अनुकरण की सम्भावना के उपस्थापन, रूढ़ियों के परिपालन, भाषा तथा शैली के कुछ पक्षों में श्रीहर्ष के इतने ऋणी हैं कि उनके कतिपय प्रसंग नैषधचरित की शब्दावली तथा भावतति से परिपूर्ण हैं । हीरसौभाग्य के प्रथम सर्ग में प्रह्लादनपुर का वर्णन नैषध के द्वितीय सर्ग के कुण्डिनपुर-वर्णन पर आधारित तथा उससे प्रभावित है । काव्यनायक का जन्मस्थान होने के नाते प्रह्लादनपुर का काव्य में विशेष महत्त्व है, फलतः श्रीहर्ष के इकतीस पद्यों (२.७४-१०५ ) के विपरीत हीरसौभाग्य के प्रथम सर्ग के अधिकतर भाग में उसका तत्परता से वर्णन किया यगा है (१.६९- १२७ ) | श्रीहर्ष की भाँति देवविमल भी काव्याचार्यों द्वारा निश्चित नगरवर्णन के विविध तत्त्वों" को उदाहृत करने की बलवती भावना से प्रेरित है । इसीलिए दोनों काव्यों में नगर के अंगरूप में उद्यान, क्रीडावापी, परिखा, परकोटा, हाट, प्रासाद तथा नर-नारियों का वर्णन किया गया है । श्रीहर्ष को नगरवर्णन में भी दार्शनिक पाण्डित्य बघारने अथवा दूर की कोडी फेंकने में हिचक नहीं । देवविमल ने प्रह्लादनपुर का उत्तम वर्णन किया है, जो भाषा - माधुर्य तथा अप्रस्तुतों के विवेकपूर्ण प्रयोग के कारण उल्लेखनीय है । इन परम्परागत तत्त्वों की समानता के अतिरिक्त देवविमल ने इस प्रसंग में, श्रीहर्ष के कतिपय भाव भी ग्रहण किए हैं", जिनमें से कुछ ने रूढ़ि का रूप धारण कर लिया है । श्रीहर्ष ने दमयन्ती के सौन्दर्य का चित्रण काव्य में कई स्थानों पर किया है | उनमें दो स्थान उल्लेखनीय हैं । द्वितीय सर्ग में हंस के माध्यम से दमयन्ती के ११. उद्याने सरणिः सर्व फलपुष्प लताद्र ुमाः । पिकालिकेलिहंसाद्याः क्रीडावाप्यध्वगस्थितिः ॥ काव्यकल्पलतावृत्ति, १.५.६८ १२. नैषध २.६३-६४, हीर० १.७१, नैषध २.७६, हीर० १.७२, नैषध २.८७, हीर० १.११८; नैषध २.८३, हीर० १.११८ आदि आदि. का आदर्श नैषधचरित है । कथानक में कम होने पर भी देवविमल वर्ण्य विषयों
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy