SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 134
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मदुसुन्दरमहाकाव्य : पद्मसुन्दर ११९ एक-एक अक्षर से मधुर शिष्टता टपकती है। वह राजदरबारों में व्यवहृत भाषा की मृदुता तथा स्निग्धता से परिपूर्ण है (३.१०४-१०५) । विधाता ने उसकी वाणी को सुधावर्षी बनाया है (३.११६)। . कुबेर उसके इन गुणों पर मुग्ध है । वह वसुदेव को पहले ही परोक्ष में हृदय समर्पित कर चुकी है। कुबेर दूत के द्वारा प्रणय-निवेदन करता है और दूत उसे नाना प्रलोभन देकर धनपति का वरण करने का औचित्य रेखांकित करता है (मद्वाचमंच न च मुंच-३.११७) । 'देवों के साहचर्य से मर्त्य भी देव बन जाता है (३.१६६) और देवता को छोड़ कर एक साधारण मर्त्य को पति चुनना विवेकहीनता है (३.१६४) दूत के इन तर्कों तथा इस धमकी का कि अस्वीकार करने पर कुबेर स्वयम्वर को तहस-नहस कर देगा (३.१७०), उस पर कोई असर नहीं पड़ता । वह दूत को स्पष्ट शब्दों में कह देती है कि मेरे शरीर को वसुदेव और सूर्य के अतिरिक्त कोई नहीं छू सकता (ड.१६०) । एक स्त्री का देवता के साथ दाम्पत्य न सम्भव है न उपयुक्त (३.१५५) । उसकी अविचल निष्ठा के कारण ही दूत अपना भेद प्रकट करता है । वैभवशाली तथा पराक्रमी सम्राटों और देवताओं को छोड़ कर वसुदेव का वरण करना उसकी निष्ठा तथा प्रेम की सत्यता का प्रमाण है । वसुदेव उस गुणवत्ती युवती को पाकर ऐसे उल्लसित हुआ जैसे पूर्णिमा की रात्रि में चन्द्रमा, नलिनी से मिल कर सूर्य, अभ्रमु को पाकर ऐरावत तथा प्रफुल्ल पुष्प पर बैठ कर भ्रमर (६.६८)। भाषा मादि पहले संकेत किया गया है कि पद्मसुन्दर की भाषा पर भी श्रीहर्ष का गहरा प्रभाव है। जहां उसने उपजीव्य काव्य का स्वतंत्र रूपान्तर किया है, वहां उसकी भाषा, उसके पार्श्वनाथ काव्य की भांति, विशद तथा सरल है; परन्तु जहां उसे नषष का लगभग उसी की पदावली में पुनराख्यान करने को विवश होना पड़ा है, वहां उसकी भाषा में प्रौढ़ता संक्रान्त हो गयी है, यद्यपि वहां भी वह उसे क्लिष्टता से बचाने के लिये प्रयत्नशील है । अन्तिम सर्ग के प्रकृति वर्णन तथा स्वयम्वर-वर्णन के कुछ भागों में भाषा का यह गुण लक्षित होता है। स्वयम्वर के प्रतिभागी राजाओं के पराक्रम के वर्णन की भाषा दीर्घ समासावली से युक्त है। पद्मसुन्दर को इस बात का श्रेय देना होगा कि नैषध से प्रेरित होने पर भी उसने भाषा को, अपनी बहुज्ञता का अखाड़ा बना कर दुरूह अथवा कष्टसाध्य नहीं बनने दिया है। एक उदाहरण देखिये जिसमें महेन्द्राधिपति की वीरता से प्रसूत कीत्ति का वर्णन है । समासबहुल होता आ भी यह क्लिष्टता से मुक्त है।
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy