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________________ जैन संस्कृत महाकाव्य करने को प्रेरित करता है । कनका के उस प्रस्ताव को अस्वीकार करने पर, उसकी सत्यनिष्ठा से प्रसन्न होता हुआ भी, वह उसे उसकी तथाकथित विवेकहीनता के कारण धमकाने से भी नहीं चूकता (३.१६३) । किन्तु उसके इस रूक्ष बाह्य के पीछे कोमल हृदय छिपा हुआ है । कनका के क्रन्दन से उसका हृदय पसीज जाता है और वह अपने कर्म की गोपनीयता को भूलकर अपना परिचय दे बैठता है। कुबेर को स्थिति से अवगत करने में भी उसे संकोच नहीं। उसके इन गुणों के कारण ही कनका स्वयम्वर में देवताओं, गन्धर्वो आदि को छोड़कर उसका वरण करती है। रोहिणी का उसे वरण करना वसुदेव के गुणों की दोहरी स्वीकृति है। वह समर्पित प्रेमी है और प्रिया की प्रसन्नता को अपनी प्रसन्नता समझता है (३.१६१) । ___ काव्यनायक का प्रमुख गुण वीरता वसुदेव के चरित्र की विशेषता है। वस्तुतः दसवें सर्ग का युद्धवर्णन उसके पराक्रम और युद्धकौशल को उजागर करने के लिये ही आयोजित किया गया है । वह, प्रच्छन्न रूप में, न केवल स्वयम्वर में अस्वीकृत राजाओं की सामूहिक सेना को पछाड़ देता है, उसके सामने समुद्रविजय के भी छक्के छूट जाते हैं । उसके बन्दी की यह उक्ति कि 'वसुदेव अपनी भुजाओं की अरणियों से उद्भूत प्रतापाग्नि से शत्रु की स्त्रियों के हृदय-कानन को क्षण भर में भस्म कर देता है' कवित्वपूर्ण होती हुई भी केवल प्रशस्ति नहीं है। इन गुणों से वासुदेव विश्व के मुकुट का रत्न बन गया है (विश्वविश्वजनमौलिकिरीटरत्नम्-३.११४) । उसका चरित सर्वातिशायी. है (सर्वातिशायि चरित तव चारुमूर्ते-३.११३)। कनका यदुसुन्दर के नायक के समान नायिका कनका भी अनेक मुणों की खान है। विद्याधरी होने के नाते वह सौन्दर्य की चरम सीमा है (सुरूप-सीमा कनकेति विश्रुता२.१) । उसके अनवद्य रूप को देख कर ऐसा लगता है कि उसका निर्माण शांतरस से जड़बुद्धि ब्रह्मा ने नहीं बल्कि कामदेव ने अपने शिल्प के समस्त कौशल से किया है। इसीलिये वह शृंगारसुधा की सरिता से किसी प्रकार कम नहीं है (४.४१) । कवि की शब्दावली में, उसने सौन्दर्य में मेनका को, स्वरमाधुर्य में वीणा को, मुखकान्ति से चन्द्रमा को और स्मिति से कमलिनी को जीत कर तीन लोकों में विजयध्वजा फहराई है (४.४३) । अपने रूप की समग्रता में वह काम की वृक्षवाटिका है (२.२६) । कनका सौन्दर्य में रति है तो बुद्धि में सरस्वती है (बभूव धिया रुचा वा नमु भारती रतिः-२.४७) । वह प्रमाण-शास्त्र में सुपठित, गद्य-पद्य की तत्त्वज्ञ, वस्तुतः समस्त विद्याओं की विदुषी है। राजकुमारी होने के कारण वह अत्यन्त शिष्ट तथा - सुसंस्कृत है । वह दूत का परिचय पूछने में जिस पदावली का प्रयोग करती है, उसके
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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