SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 135
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२० जैन संस्कृत महाकाव्य एतत्संयुगसांयुगीनविलसद्दीर्ब ल्लिभल्लाहतद्वेषिस्त्रीकरकम्बुकंकण बिसछेदाशनैकस्पृहा । अस्यामित्रकलत्रनेत्ररुदिताम्भोनिर्झरे खेलति क्षोणीमण्डलमण्डनं किल यशोहंसालिरिन्द्ज्वला ॥। ५.१८ नैषध की पदावली से बच कर पद्मसुन्दर ने नैषध के जिन भावों को अपनी भाषा में व्यक्त किया है, वह अपनी सुबोधता से भावों की अभिव्यक्ति में सहायक बनी है । दूत के प्रति कनका की यह प्रश्नोक्ति तथा काव्य में अन्य कतिपय स्थल, नैषध की भाषा का विरोधी ध्रुव प्रस्तुत करते हैं । अपनी सहजता के कारण यह उस गुण से व्याप्त है, जिसे साहित्यशास्त्र में 'प्रसाद' कहा गया है । सहसंहनन मे चरितार्थयेदं सिंहासनं निजपदाम्बुजविश्रमेण । नो ते तव मनो नलिननदिम्नो विद्वेषिणः पदयुगस्य विहारचारैः ॥ ३.१०५ निःश्रीकेमेव कृतवान् कतमं व्यतीत्य देशं पुरस्य यदिहाभरणीबभूव । कामं स्वनाम मयि च प्रकृते निवेद्यं प्रायो हि नामपदमेव मुखं क्रियासु ॥ ३.१०६ सामान्यतः यदुसुन्दर की भाषा को सुबोध कहा जायेगा पर काव्य में, नैषध के प्रभाव से मुक्त दो ऐसे स्थल हैं, जिनमें पद्मसुन्दर अपने उद्देश्य से भटक कर, चित्रकाव्य में अपना रचनाकौशल प्रदर्शित करने के फेर में फंस गये हैं । इन सर्गों में यदुसुन्दर का कर्त्ता स्पष्टतः माघ के आकर्षण से अभिभूत है, जिसने इसी प्रकार ऋतुओं तथा युद्ध के वर्णनों को बौद्धिक व्यायाम का अखाड़ा बनाया है । पद्मसुन्दर का षऋतु वर्णन वाला नवां सर्ग आद्यन्त यमक से भरपूर है । इसमें पद, पाद, अर्द्ध तथा महायमक आदि यमक भेदों के अतिरिक्त कवि ने अनुलोम-प्रतिलोम, षोड- शदलकमल, गोमूत्रिकाबन्ध आदि साहित्यिक हथकण्डों पर हाथ चलाया है । शिशुपालवध की तरह पद्मसुन्दर का युद्धवर्णन एकव्यंजनात्मक, यक्षरात्मक तथा वर्ण, मात्रा, बिन्दुच्युतक आदि चित्रकाव्य से जटिल तया बोझिल है, यद्यपि ऋतुवर्णन की अपेक्षा इसकी मात्रा यहां कम है। इनसे कवि के पाण्डित्य का संकेत अवश्य मिलता है पर ये इन स्थलों पर काव्य की ग्राह्यता में बाधक हैं, इसमें सन्देह नहीं । निन्मांकित महायमक से कवि के यमक की करालता का अनुमान किया जा सकता है । सारं गता तरलतारतरंगसारा सारंगता तरलतारतरंगसारा । सारं गता तरलतारतरंगसारा सारं गता तरलंतारतरंग सारा ॥ ६.२६ शरद्वर्णन का यह पद्य आरम्भ तथा अन्त से एकसमान पढा जा सकता है । शरत् के इस अधम वर्णन से कितने पाठक ऋतु-सौन्दर्य का रस ले सकते हैं ?. सारसारवसारा सा रुचा तानवकारिका । कारिकावनता चारुसारा सा वरसारसा ।। ६.५८
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy