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________________ जैन संस्कृत महाकाव्य सुन्दरप्रकाशशब्दार्णव कोशग्रन्थ है । इसमें पांच तरंगें तथा २६६८ पद्य हैं ।" जम्बूस्वामिचरित ( प्राकृत), भारती स्तोत्र, अकबरशाहिशृंगार दर्पण तथा कतियस्तोत्र आदि उनकी अन्य ज्ञात रचनाएँ हैं । देवविमल ने स्वोपज्ञ टीका में भारती स्तवन के अतिरिक्त पद्मसुन्दर के 'मालवरागजिन ध्रुवपद' से उद्धरण दिए हैं ।" शृंगार-दर्पण के अतिरिक्त उनकी प्रायः अन्य सभी कृतियां अप्रकाशित हैं । कथानक १०४ यदुसुन्दर की कथावस्तु यदुवंशीय वसुदेव तथा विद्याधर राजकुमारी कनका के विवाह तथा विवाहोपरान्त क्रीडाओं के दुर्बल आधार तन्तु पर अवलम्बित है । प्रथम सर्ग का आरम्भ यदुकुल की राजधानी मथुरा के वर्णन से होता है, जिसमें उसे स्वर्ग से श्रेष्ठ प्रमाणित करने का गम्भीर प्रयत्न किया गया है । यादवकुल के प्रवर्तक यदु के उत्तराधिकारियों में कंस साक्षात् राक्षस था ।" नगरवासी, पोरांगनाओं के प्रति वसुदेव के उच्छृंखल व्यवहार की शिकायत उसके अग्रज समुद्रविजय से करते हैं। (पुरांगनाशीलपरासनोद्धतस्तवानुजः संप्रति साम्प्रतं न तत् - १.४५ ) । अग्रज की - भर्त्सना से रुष्ट होकर वसुदेव देश छोड़कर विद्याधरों की नगरी में शरण लेता है । द्वितीय सर्ग में एक हंस, कनका के महल में आकर 'यदुकुल के गगन के सूर्य' वसुदेव के गुणों का बखान करता है । 'वसुदेव पुरुषों में नाहर है, तू युवतियों का शृंगार; अत: तुम्हारा युगल अनुपम होगा ' ( २.६५ ) । वसुदेव का चित्र देखकर कनका अधीर हो जाती है । हंस उसकी मनोरथपूर्ति का वचन देकर उड़ जाता है । विरहव्याकुल कनका को, सच्चिदानन्द से सान्द्र ब्रह्म के अद्वैत रूप की तरह सर्वत्र वसुदेव दिखाई देता है । वसुदेव भी कनका की अनुरक्ति का समाचार पाकर पुलकित हो जाता है । तृतीय सर्ग के प्रारम्भिक तेतीस पद्यों में कनका के विप्रलम्भ का वर्णन है | काम के स्वर्णकार ने उसे वियोग की कसौटी पर इस निर्ममता से रगड़ा कि वह सोने की रेखा के समान क्षीण बन गई । वसुदेव नगर द्वार पर आकर निकटवर्ती उद्यान का वर्णन करता है । तभी धनपति कुबेर वहां आकर वसुदेव को कनका के पास, उसका प्रणयनिवेदन करने के लिए दूत बनकर जाने को प्रेरित करता है । वसुदेव असमंजस में पड़ जाता है । 'जो मेरे में अनुरक्त है, उस कनका को यह मेरे द्वारा ही प्राप्त करना चाहता हैं। जिसका स्मरण मात्र मुझे उद्भ्रान्त और मूच्छित कर देता है, उसके सामने भावों को छिपाना कैसे सम्भव होगा' ? कुबेर के प्रभाव १२. अनेकान्त, वर्ष ४, अंक ८. १३. हीरसौभाग्य, ११.१३५, टीका- 'जिनवचनपद्धतिरुक्तिचं गिममालिनी' इति पद्मसुन्दर कृतमालवराग जिनध्रुवपदे । १४. स्ववंशविध्वंसनृशंसकौणपः । यदुसुन्दर १.३२
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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