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________________ यदुसुन्दरमहाकाव्य : पद्मसुन्दर १०५ से वह, अदृश्य रूप में, बेरोक अन्तःपुर में पहुंच जाता है (भवतु तनुः परैरलक्ष्या३.७२) । वहां वह वास्तविक रूप में प्रकट होकर कुबेर के पूर्वराग की वेदना का हृदयस्पर्शी वर्णन करता है और कनका को उसका वरण करने के लिए प्रेरित करता है (श्रीदं पति ननु वृणुष्व पतिवरे स्वम्--३.१४७) । वह उसके वाग्छल से खिन्न हो जाती है जिससे उसने अपना परिचय न देकर धनपति के दौत्य का निर्वाह किया है । कनका की सखी दूत को बताती है कि इसे वसुदेव के सिवाय कोई पुरुष पसन्द नहीं है, भले ही वह देवराज इन्द्र हो ।१५ दूत उसे देवों की शक्ति तथा स्वर्ग के सुखों का लालच देकर, कुबेर की ओर उन्मुख करने का प्रयत्न करता है । कनका अडिग रहती है। दूत धनाधिपति को छोड़ कर साधारण पुरुष का वरण करने के उसके निश्चय की बालिशता की कड़ी भर्त्सना करता है । कनका व्यथित होकर अपने भाग्य को धिक्कारती है और रोने लग जाती है । उसकी अविचल निष्ठा" और करुणालाप से दूत द्रवित हो जाता है और वह दौत्य को भूल कर सम्भ्रमवश अपना यथार्थ परिचय दे दता है। भ्रम मिटने पर उसे पश्चात्ताप अवश्य होता है पर उसे अपने हृदय की शुद्धता पर विश्वास है । पति को साक्षात् देखकर कनका 'लज्जा के सिन्धु' में डूब गयी। वसुदेव वापिस आकर कुबेर को वास्तविकता से अवगत कर देता है । चतुर्थ सर्ग में देवता, विभिन्न द्वीपों के अधिपति और पृथ्वी के दृप्त एवं प्रतापी शासक कनका के स्वयंवर में आते हैं। कुबेर की अंगूठी पहनने से वसुदेव भी कुबेर के समान प्रतीत होने लगा और सभा को दो कुबेरों का भ्रम हो गया । वेत्रधारिणी कनका को सर्वप्रथम देवताओं की सभा में ले गई, किन्तु वह उन्हें छोड़ कर तत्काल आगे बढ़ गई। सर्ग के शेष भाग तथा पंचम सर्ग में वेत्रधारिणी दस आगन्तुक राजाओं का क्रमिक परिचय देती हैं जिसमें उनके गुणों और पराक्रम को अधिक महत्त्व दिया गया है । छठे सर्ग में वास्तविक कुबेर तथा कुबेर रूपधारी वसुदेव का वर्णन है। रूपसाम्य के कारण कनका उलझन में पड़ जाती है । अंगूठी उतारने से वसुदेव का यथार्थ रूप प्रकट हो जाता है। कनका माला डाल कर उसका वरण करती है। सप्तम सर्ग में क्रमश: कनका तथा वसुदेव की विवाहपूर्व सज्जा का वर्णन है । वसुदेव सूर्य की तरह अश्व पर बैठकर वधूगृह को प्रस्थान करता है । यहीं नौ पद्यों में (७४-८२) उसे देखने को लालायित पौरांगनाओं के सम्भ्रम का चित्रण है । कनका का पाणिग्रहण, विवाहोत्तर भोज तथा नववधू की विदाई अष्टम सर्ग का विषय है । षड्ऋतु वर्णन पर आधारित नवम १५. एषा नृदेव वसुदेवपति विनान्यं नाशंसते हि मघवंतमपि प्रतीहि । वही, ३.१५६. १६. सौरेऽवधूय सकलं तव पादपद्मकोशेऽलिनीव कृपणा किल तस्थुषीयम् । वही, ३.१८२.
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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