SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 118
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - मदुसुन्दर महाकाव्य : पद्मसुन्दर समय पद्मसुन्दर आगरा में ही थे, यह जइतपदेवलि से स्पष्ट है' । कवि के यदुसुन्दर में इसके रचनाकाल का कोई संकेत उपलब्ध नहीं है । अन्य कतिपय ग्रन्थों के विपरीत इसमें प्रान्त प्रशस्ति का भी अभाव है । अभी तक सम्वत् १६३२ में रचित प्रमाणसुन्दर को पद्मसुन्दर की अन्तिम रचना माना जाता रहा है । परन्तु यदुसुन्दर की प्रौढता से इसके कवि की अन्तिम कृति होने में सन्देह नहीं रह जाता । यदि पूर्वोक्त युक्ति से पद्मसुन्दर का देहान्त सम्वत् १६३७-३८ में माना जाए तो यदुसुन्दर को १६३२ तथा १६३८ के मध्यवर्ती काल की रचना मानना न्यायोचित होगा । १.३ 1 उपाध्याय पद्मसुन्दर बहुमुखी विद्वान् तथा आशुकवि थे । उन्होंने सम्वत् १६१४ की कात्तिक शुक्ला पंचमी को भविष्यदत्तचरित की रचना सम्पन्न की, सम्वत् १६१५ ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी को रायमल्लाभ्युदय का निर्माण हुआ और उसी वर्ष मार्गशीर्ष की कृष्णा चतुर्दशी को पार्श्वनाथकाव्य पूर्ण हुआ' अर्थात् लगभग एक वर्ष में ही उन्होंने तीन ग्रन्थों की रचना करके अपनी कवित्व शक्ति का परिचय दिया । ये तीनों ग्रन्थ रायमल्ल की प्रेरणा तथा अभ्यर्थना से लिखे गये " । पद्मसुन्दर का साहित्य उनके रुचिवैविध्य का द्योतक है । उन्होंने काव्य, ज्योतिष, दर्शन, कोश आदि ग्रन्थों से साहित्यिक निधि को समृद्ध बनाया है । यदुसुन्दर तथा पार्श्व - नाथकाव्य" उनके दो महाकाव्य हैं । रायमल्लाभ्युदय में चौबीस तीर्थंकरों का वृत्त निरूपित है । ज्योतिष-ग्रन्थ हायनसुन्दर, परमतव्यवच्छेदस्याद्वादसुन्दरद्वात्रिंशिका, वरमंगलमालिकास्तोत्र तथा राजप्रश्नीयनाट्यपदभंजिका की हस्तप्रतियाँ, स्टेट लायब्ररी बीकानेर में सुरक्षित हैं । षट्भाषागर्भित नेमिस्तवगाथा की रचना छह भाषाओं में हुई है । इसकी एक प्रति अभय जैन ग्रन्थालय, बीकानेर में उपलब्ध है । ८ श्री अगरचन्द नाहटा द्वारा सम्पादित 'ऐतिहासिक जैन काव्यसंग्रह' में प्रकाशित, पृ. १४०. ६. अब्दे विक्रमराज्यतः शरकलाभृत्तकं संमिते ( ? ) + मार्गे मास्यसिते चतुर्दशदिने सत्सौम्यवारांकिते || पार्श्वनाथकाव्य, ७/४४ तथा जैन साहित्य और इतिहास, पृ. ३६६-३६७. १०. शुश्रूषुस्तदकारयत्सुकवितः श्रीपार्श्वनाथाह्वयं । काव्यं व्यमिदं श्रुतिप्रमवदं श्रीरायमल्लाह्वयः ॥ पार्श्वनाथकाव्य, १ / ३ काव्यं कारितवान पूर्व रसवद्यो रायमल्लोदयं जीयादारविचन्द्रतारकमयं श्रीरायमल्लाह्वयः ॥ रायमल्लाभ्युदय, ४०. ११. पार्श्वनाथकाव्य का विवेचन आगे यथास्थान किया जायेगा ।
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy