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________________ जैन संस्कृत महाकाव्य सहसा सिंहासन हिलने से देवराज क्रोध से उन्मत्त हो जाता है । उसकी कोप- जन्य चेष्टाओं में रौद्ररस के अनुभावों की भव्य अभिव्यक्ति हुई है । क्रोध से उसके माथे पर तेवड़ पड़ जाते हैं, भौंहें सांप-सी भीषण हो जाती हैं, आंखें आग बरसाने लगती हैं और दाँत किटकिटा उठते हैं । ६० ललाटपट्ट भ्रकुटी भयानकं प्र वो भुजंगाविव दारुणाकृती । दृशः कराला: ज्वलिताग्निकुण्डवच्चण्डार्यमाभं मुखमादधेऽसौ ॥ ददंश दन्तै रुपया हरिर्निजौ रसेन शच्या अधराविवाधरौ । प्रस्फोरयामास करावितस्ततः क्रोधद्र मस्योल्बणपल्लवाविव ।। ५.३-४. प्रतीकात्मक सम्राट् मोह के दूत तथा संयमराज के नीतिनिपुण मन्त्री विवेक की उक्तियों में ग्यारहवें सर्ग में, वीर रस की कमनीय झाँकी देखने को मिलती है । यदि शक्तिरिहास्ति ते प्रभोः प्रतिगृह्णातु तदा तु तान्यपि । परमेष विलोलजिह्वया कपटी भापयते जगज्जनम् ॥ ११.४४ चरित्रचित्रण नेमिनाथमहाकाव्य के संक्षिप्त कथानक में पात्रों की संख्या भी सीमित है । कथानायक नेमिनाथ के अतिरिक्त उनके पिता समुद्रविजय, माता शिवादेवी, राजीमती, उग्रसेन, प्रतीकात्मक सम्रट् मोह तथा संयम और दूत कैतव एवं मन्त्री विवेक काव्य के पात्र हैं । परन्तु इन सब की चरित्रगत विशेषताओं का निरूपण करने में कवि को समान सफलता नहीं मिली है । नेमिनाथ जिनेश्वर नेमिनाथ काव्य के नायक हैं। उनका चरित्र मूल पौराणिक परिवेश में प्रस्तुत किया गया है । वे देवोचित विभूति तथा शक्ति से सम्पन्न हैं । उनके धरा पर अवतीर्ण होने से ही समुद्रविजय के समस्त शत्रु निस्तेज हो जाते हैं। दिक्कुमारियां उनका सूतिकर्म करती हैं तथा उनके जन्माभिषेक के लिये स्वयं सुरपति इन्द्र जिनगृह में आता है । पाँचजन्य को फूंकना तथा शक्तिपरीक्षा में षोडशकला सम्पन्न श्रीकृष्ण को पराजित करना उनकी दिव्य शक्तिमत्ता के प्रमाण हैं । नेमिनाथ का समूचा चरित्र विरक्ति के केन्द्रबिन्दु के चारों ओर घूमता है वे वीतराग नायक हैं । यौवन की मादक अवस्था में भी वैषयिक सुख उन्हें अभिभूत नहीं कर पाते । कृष्ण पत्नियाँ नाना प्रलोभन तथा तर्क देकर उन्हें विवाह करने को प्रेरित करती हैं, किन्तु वे हिमालय की भांति अडिग तथा अडोल रहते हैं । उनका दृढ़ विश्वास है कि वैषयिक सुख परमार्थ के शत्रु हैं। उनसे आत्मा उसी प्रकार तृप्त नहीं होती जैसे जलराशि से सागर और काठ से अग्नि । उनके विचार में कामातुर मूढ़ ही धमौषधि को छोड़ कर नारी रूपी औषध का सेवन करता है । वास्तविक
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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