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________________ नेमिनाथमहाकाव्य : कीतिराज उपाध्याय सुख ब्रह्मलोक में विद्यमान है। हितं धौषधं हित्वा मूढाः कामज्वरादिताः । मुखप्रियमपथ्यन्तु सेवन्ते ललनौषधम् ॥ ६.२४ माता-पिता के प्रेम ने, उन्हें उस सुख की प्राप्ति के मार्ग से एक पग ही हटाया था कि उनकी वैराग्यशीलता तुरन्त फुफकार उठती है। वधूगृह में भोजनार्थ वध्य पशुओं का आर्त क्रन्दन सुनकर उनका निर्वेद प्रबल हो जाता है और वे विवाह को बीच में ही छोड़ कर प्रव्रज्या ग्रहण कर लेते हैं। उनकी साधना की परिणति शिवत्व-प्राप्ति में होती है । अदम्य काम को पराजित करना उनकी धीरप्रशान्तता की प्रतिष्ठा है। समुद्रविजय यदुपति समुद्रविजय कथानायक के पिता हैं। उनमें समूचे राजोचित गुण विद्यमान हैं । वे रूपवान्, शक्तिशाली, ऐश्वर्यसम्पन्न तथा प्रखर मेधावी हैं। उनके गुण अलंकरणमात्र नहीं हैं। वे व्यावहारिक जीवन में उनका उपयोग करते हैं। (शक्तेरनुगुणाः क्रियाः १.३६) । समुद्रविजय तेजस्वी शासक हैं। उनके बन्दी के शब्दों में अग्नि तथा सूर्य का तेज भले ही शान्त हो जाए, उनका पराक्रम अप्रतिहत है (७.२५) । उनके सिंहासनारूढ होते ही उनके शत्रु म्लान हो जाते हैं। फलतः शत्रु-लक्ष्मी ने उनका इस प्रकार वरण किया जैसे नवयौवना बाला विवाहवेला में पति का। उनका राज्य पाशविक बल पर आश्रित नहीं है । वे केवल क्षमा को नपुंसकता और निर्बाध प्रचण्डता को अविवेक मान कर, इन दोनों के समन्वय के आधार पर ही राज्य का संचालन करते हैं (१.४३)। 'न खरो न भूयसा मदुः' उनकी नीति का मूल मन्त्र है। प्रशासन के चारु संचालन के लिये उन्होंने न्यायप्रिय तथा शास्त्रवेत्ता मन्त्री नियुक्त किये हैं (१.४७) । उनके स्मितकान्त ओष्ठ मित्रों के लिये अक्षय कोश लुटाते हैं, तो उनकी भ्रूभंगिमा शत्रुओं पर वज्रपात करती है। (१.५२) । प्रजाप्रेम समुद्रविजय के चरित्र का विशिष्ट गुण है। यथोचित करव्यवस्था से उसने सहज ही प्रजा का विश्वास प्राप्त कर लिया (आकाराय ललो लोकाद् भागधेयं न तृष्णया-१.४५) समुद्रविजय पुत्रवत्सल पिता हैं । पुत्रजन्म का समाचार सुनकर उनकी बाछे खिल जाती हैं। पुत्रप्राप्ति के उपलक्ष्य में वे मुक्तहस्त से धन वितरित करते हैं, बन्दियों को मुक्त कर देते हैं तथा जन्मोत्सव का ठाटदार आयोजन करते हैं, जो निरन्तर बारह दिन चलता है । समुद्रविजय अन्तस् से धार्मिक व्यक्ति हैं। उनका धर्म सर्वोपरि है। आर्हत धर्म उन्हें पुत्र, पत्नी, राज्य तथा प्राणों से भी अधिक प्रिय है (१.४२)। इस प्रकार समुद्रविजय त्रिवर्गसाधन में रत हैं। सुव्यवस्था तथा न्यायपरा
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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