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________________ - नैमिनाथमहाकाव्य : कीर्तिराज उपाध्याय ८६ मनुष्य को विषय आकर्षणों तथा सम्बन्धों की क्षणिकता का भान करा कर उसे मोक्ष -की ओर उन्मुख करता है । दिवसो यथा नहि विना दिनेश्वरं सुकृतं विना न च भवेत्तथा सुखम् । तदवश्यमेव विदुषा सुखार्थिना सुकृतं सदैव करणीयमादरात् ।। १२.४४ विघटते स्वजनश्च सुहृज्जनो विघटते च वपुविभवोऽपि च । विघटते नहि केवलमात्मनः सुकृतमत्र परत्र च संचितम् ॥ १२.४७ नेमिनाथमहाकाव्य के कथानक की मूल प्रकृति शृंगार रस से असम्पृक्त है । वह आमूल-चूल निर्वेद से अनुप्राणित है । काव्य के केवल एक-दो प्रसंगों में शृंगार की आभा दिखाई देती है । देवांगनाओं तथा राजीमती के सौन्दर्य वर्णन में शृंगार के आलम्बन विभाव की प्रतिष्ठा है । श्रीकृष्ण की पत्नियों की प्रलोभनकारी उक्तियों में नारी को संसार का सार तथा यौवन की सार्थकता के लिये उसका भोग आवश्यक माना गया है" । ऋतु वर्णन के अन्तर्गत शृंगार के अनेक रमणीक चित्र अंकित हुए हैं । प्रकृति के उद्दीपन रूप से विचलित होकर प्रेमी युगलों के कामकेलियों में प्रवृत्त होने का संकेत प्रकृति चित्रण के प्रकरण में किया गया है । वसन्त-वर्णन के निम्न लिखित पद्य में शृंगार रस की सुन्दर अभिव्यक्ति हुई है । उपवन के मादक वाता वरण में कामाकुल नायिका नए छैल पर रीझ गयी है। उसने उसे पुष्पचयन से विमुख कर तत्काल अपने मोहजाल में बांध लिया है । उपवने पवनेरितपादपे नवतरं बत रंतुमनाः परा सकरुणा करुणावचये प्रियं प्रियतमा यतमानमवारयत् ।। ८.२२ नेमिनाथमहाकाव्य में गौण रसों में, श्रृंगार के पश्चात् करुणरस का स्थान करुण रस की सृष्टि उपालम्भ तथा क्रन्दन है । अप्रत्याशित प्रत्याख्यान से शोकतप्त राजीमती के विलाप में हुई है । कुमारसम्भव के रतिविलाप की भांति यद्यपि इसमें अधिक है तथापि यह हृदय की गहराई को छूने में समर्थ है। अथ भोजनरेन्द्र पुत्रिका प्रवियुक्ता प्रभुणा तपस्विनी । व्यलपद् गलदधुलोचना शिथिलांगा लुठिता महीतले ।। ११.१ मयि कोsयमधीश ! निष्ठुरो व्यवसायस्तव विश्ववत्सल ! विरहय्य निजाः स्वर्धामणीर्नहि तिष्ठन्ति विहंगमा अपि ॥ ११.२ अपराधमृते विहाय मां यदि तामाद्रियसे व्रतस्त्रियम् । बहुभिः पुरुषः पुरा धूतां नहि तन्नाथ ! कुलोचितं तव ।। ११.४ रौद्र रस का परिपाक पांचवें सर्ग में, इन्द्र के क्रोध के वर्णन में हुआ है । १९ फलं यौवनवृक्षस्य द्राग् गृहाण विचक्षण । वही, ६.११ संसारे सारभूतो यः किलायं प्रमदाजनः । वही, ६.१५
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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