SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 103
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन संस्कृत महाकाव्य प्रतिभा के कारण उसके सभी सौन्दर्य-वर्णनों में बराबर रोचकता बनी रहती है । नवीन उपमान उसकी काव्यकला को हृदयंगम बनाने में सहायक सिद्ध हुए हैं । निम्नोक्त पद्य में देवांगनाओं की जघनस्थली की तुलना कामदेव की आसनगद्दी से की गयी है, जिससे उसकी पुष्टता तथा विस्तार का तुरन्त भान हो जाता है । वृता दुकूलेन सुकोमलेन विलग्नकांचीगुणजात्यरत्ना । विभाति यासां जघनस्थली सा मनोभवस्यासनगब्दिकेव ।। ६.४७ इसी प्रकार राजीमती की जंघाओं को कदलीस्तम्भ तथा कामगज के आलान के रूप में चित्रित करके एक ओर उनकी सुडौलता तथा शीतलता को व्यक्त किया गया है, दूसरी ओर उनकी वशीकरण-क्षमता का संकेत कर दिया गया है । ८८ भारुयुगं यस्याः कदलीस्तम्भकोमलम् । आलान इव दुर्दन्त-मीनकेतन - हस्तिनः ।। ६.५५ नेमिनाथ महाकाव्य में उपमान की अपेक्षा उपमेय अंगों का वैशिष्ट्य बता कर व्यतिरेक के द्वारा पात्रों का सौन्दर्य चित्रित करने की विधि भी अपनायी गयी है। नवयौवना राजीमती के लोकोत्तर सुख-सौन्दर्य को कवि ने इसी पद्धति से संकेfar किया है । उसकी मुख-माधुरी से परास्त होकर लावण्यनिधि चन्द्रमा मुंह छिपाने के लिये आकाश में मारा-मारा फिर रहा है । यस्या वक्त्रजितः शंके लाघवं प्राप्य चन्द्रमाः । तूलवद् वायुनोत्क्षिप्तो बम्भ्रमीति नभस्तले ।। ६.५२ रसयोजना परिवर्तनशील मनोरागों का यथातथ्य चित्रण करने में कीर्त्तिराज की सिद्धिहस्तता निर्विवाद है । उसकी तूलिका का स्पर्श पाकर साधारण से साधारण प्रसंग भी रससिक्त हो गया है । कवि के इस कौशल के कारण, धार्मिक वृत्त पर आधारित होता हुआ भी नेमिनाथमहाकाव्य पाठक को तीव्र रसानुभूति कराता है । शास्त्रीय नियम तथा काव्य के उद्देश्य एवं प्रकृति के अनुरूप इसमें शान्तरस की प्रधानता मानना न्यायोचित होगा, यद्यपि इसमें अंगीरस - सुलभ तीव्रता का अभाव है । करुण, श्रृंगार, रौद्र आदि का भी काव्य में यथोचित परिपाक हुआ है। अधिकांश जैन काव्यों की भाँति नेमिनाथमहाकाव्य का पर्यवसान शान्त रस में होता है । शान्तरस का आधारभूत तत्त्व ( स्थायी भाव ) निर्वेद है, जो काव्य- नायक के जीवन में आद्यन्त अनुस्यूत है । और अन्ततः वे केवलज्ञान के सोपान से ही परम पद की अट्टालिका में प्रवेश करते हैं । वधूगृह के ग्लानिपूर्ण हिंसक दृश्य को देखकर तथा कृष्ण पत्नियों की कामुकतापूर्ण युक्तियां सुनकर उनकी वैराग्यशीलता का प्रबल होना स्वाभाविक था । इन प्रसंगों में शान्त रस की यथेष्ट अभिव्यक्ति हुई है । नेमिप्रभु की देशना का प्रस्तुत अंश
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy