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________________ परिग्रह और हिंसा का प्रतिक्रमण गाथा - ३ अपनी-अपनी भूमिका अनुसार किस तरह से जीवन जीना चाहिए, धर्म की या अन्य कोई भी प्रवृत्ति किस विधि से, किस प्रकार से करनी चाहिए, उसका सुन्दर मार्गदर्शन प्रभु ने दिया हैं। इन्हीं बातों को परंपरा में आए हुए आचार्य भगवंतों ने शास्त्रों में लिखी हैं। शास्त्रों में बताये गए इन वचनों को स्मृति में रखकर यदि जीवन जीया जाए या प्रत्येक प्रवृत्ति की जाए तो जरूर स्व-पर प्राणों की सुरक्षा हो सकती है। परंतु मिथ्याभिमान धारण करके जो लोग ऐसा मानते हैं या कहते हैं कि ‘बात-बात में भगवान की आज्ञा को क्या करना है ? आज के समय के मुताबिक जो ठीक लगे सो करना चाहिए।' ऐसा मानकर अगर भगवान के वचनों की उपेक्षा की जाए अथवा वचन से विपरीत प्रवृत्ति की जाए अथवा उपदेश दिया जाए तो उससे वास्तव में अनंत जीवों के हित का ह्रास होता है, अनेक जीवों के द्रव्य - भाव प्राणों की सुरक्षा का भंग होता है। ऐसे मिथ्याभिमानी, सर्वज्ञ के वचनों का अनादर करके वास्तव में भगवान का ही अनादर करते हैं। आप्त पुरुष परमात्मा का अनादर याने अनंत गुणों के स्वामी का अनादर और गुणवान का अनादर याने अपने सुख के मूलकारण समान गुणों का अनादर । इस प्रकार के अनादर से ऐसा गाढ कर्मबन्ध होता है कि जब उसका उदय चालू होता है तब आत्मा को पुनः ऐसे ही मलिन भाव आते हैं और उसकी वजह से वह अनंतकाल तक संसार में भटकता रहता है और आहार आदि द्वारा अनंत जीवों को पीड़ा उत्पन्न करने में निमित्त बनता है। इस तरह एक बार हुई परमात्मा के वचन की उपेक्षा अनंत भवों तक हिंसा करवाने में समर्थ है। अतः ऐसी प्रवृत्ति ही अनुबंध हिंसा रूप बनती है। ऐसी प्रवृत्ति करने वाला बाहरी दृष्टि से शायद धर्मात्मा जैसा ही दिखाई देता हो, उग्र तपश्चर्या आदि भी करता हो, तो भी प्रभु की आज्ञा के प्रति अनादर होने के कारण वह सतत अनुबंध हिंसा से युक्त माना जाता है। ५१ अनुबंध हिंसा दुरंत संसार का कारण है । क्लिष्ट कर्मबन्ध का हेतु हैं एवं उसके विपाक (फल) अति कटु होते हैं। अतः साधक को ऐसी हिंसा से बचने का सतत प्रयत्न करना चाहिए एवं आज्ञा सापेक्ष जीवन जीना चाहिए। हाँ ! कभी ऐसा बने कि भगवान की आज्ञा के अनुसार करने की पूर्ण भावना होने पर भी मतिमंदता के कारण आज्ञा विरुद्ध प्रवृत्ति हो जाए; परंतु वास्तविकता का खयाल आने पर तुरंत मुड़ जाने की भावना हो अथवा कभी प्रमादादि दोषों के कारण आज्ञानुसारी प्रवृत्ति न हो सके, तो भी अगर साधक के हृदय में उस अनुचित
SR No.006127
Book TitleSutra Samvedana Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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