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________________ वंदित्तु सूत्र भौतिक सुख की प्राप्ति के लिए अन्य के सुख की उपेक्षा करने के भाव उनमें सतत रहते हैं, उनके ये भाव ही हेतु हिंसारूप हैं। जैसे संसारी जीव प्रमादवश हेतु हिंसा करता है वैसे साधु भगवंत विषय-कषाय आदि प्रमाद अपने जीवन में प्रवेश न हो उसके लिए सावधान होते हुए भी कभी अनुपयोग एवं अयतना से कहीं चूक जाते हैं; उनकी ऐसी यतनाविहीन प्रवृत्ति भी हेतु हिंसा में परिणत होती है। इसीलिए जीव बचाने का भाव होने पर भी अगर नीचे देखकर न चले तो हेतु हिंसा मानी जाती है एवं नीचे देखकर चलते हुए भी अगर जीव बचाने का भाव न हो तो भी हेतु हिंसा मानी जाती है, और कई बार जीव को मारने का भाव नहीं हो, बचाने का भाव हो, जयणा हो, तो भी वैषयिक सुख की इच्छा से प्रवृत्ति हो तो भी हेतु हिंसा होती है। ३. अनुबंध हिंसा : 'आज्ञाभंग मिथ्यामति भावे, अनुबंध विरूप' अनुबंध अर्थात् परंपरा; जिससे हिंसा की परंपरा का सर्जन होता हो अथवा अनंत भवों तक जिसके कटु फल भुगतने पड़ते हों वैसी प्रवृत्ति को अनुबंध हिंसा कहते हैं। अनुबंध हिंसा के मुख्य कारण हैं (१) भगवद्-आज्ञा की उपेक्षा और (२) मिथ्यात्व से वासित मति। मिथ्यात्व के उदय बिना भगवान की आज्ञा की उपेक्षा नहीं होती एवं आज्ञा की उपेक्षा बिना अनुबंध हिंसा नहीं घटती, क्योंकि हिंसा की परंपरा का कारण है भव की परंपरा, एवं भव की परंपरा का कारण है भगवद् आज्ञा की उपेक्षा। अतः भगवान की आज्ञा की उपेक्षा ही अनुबंध हिंसा हैं। परमतारक परमात्मा का प्रत्येक वचन सर्व जीवों को सुखी करने के लिए है, इसलिए उनकी एक-एक आज्ञा से सर्व जीवों की रक्षा होती है। ऐसे वचनों की उपेक्षा अर्थात् जीवों के सुख की या रक्षा की ही उपेक्षा। इसलिए ही भगवान की आज्ञा की उपेक्षा ही अनुबंध हिंसा कहलाती हैं। सर्वज्ञ एवं सर्वदर्शी प्रभु जगत के सर्व जीवों को यथार्थरूप से देखते हैं एवं जानते हैं। जीव मात्र को सुख एवं दुःख किस तरह से प्राप्त होता है वह भी वे समझते हैं। इस कारण ही उन्होंने सर्व जीवों के हित को लक्ष्य में रखकर साधक के लिए सर्व विधि-विधान बताये हैं। जगत के जीवों को पीड़ा न हो या उनके लिए दुःख की परंपरा का निर्माण न हो, उसका ध्यान रखते हुए, प्रत्येक साधक को
SR No.006127
Book TitleSutra Samvedana Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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